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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 273 परिग्रह - संचय-बुद्धि का आधार 'पर' होता है। जहाँ संचय-बुद्धि होती है, वहाँ कभी-कभी व्यक्ति उसके उपयोग से भी वंचित रहता है। जैसे कृपण व्यक्ति धन-संचय तो करता है, पर उसका उपयोग नहीं कर पाता है। "कण संचय किड़ी करे, ते तितर चुग जाए। जो कृपण धन संचिये, यूँ ही जाए विलाय ।। आचार्य भिक्षु के इस कथन का मूल आधार आचारांगसूत्र है। उसमें कहा गया है कि व्यक्ति धन का संचय करता है, लेकिन वह संचित धन या तो परिजनों के द्वारा बाँट लिया जाता है, अथवा राजा के द्वारा उसका अपहरण कर लिया जाता है, अथवा चोर चोरी करके ले जाता है, अथवा अग्नि आदि से नष्ट हो जाता है, इसलिए कहा गया है कि जो व्यक्ति धन का संचय करता है, वह उसका उपभोग भी नहीं कर पाता है। धन के संचय के साथ रक्षण की वृत्ति काम करती है, जहाँ रक्षण की वृत्ति होती है, वहाँ अंतस में भय होता है, जहाँ भय है, वहाँ तनाव है ही और इसी प्रकार संचित धन के नष्ट हो जाने का भय, छीन लिए जाने का भय तनाव ही है। जो व्यक्ति धन आदि के प्रति ममत्ववृत्ति रखता है, वह निश्चय ही उनके संरक्षण एवं उनका विनाश से बचाने आदि के लिए सदैव चिन्तित रहता है और जहाँ चिन्ता है, वहाँ तनाव है, इसलिए. तनाव से मुक्ति अपरिग्रह से ही सम्भव है। परिग्रह-वृत्ति से बचने के लिए कुछ सूत्र निम्न हैं - 1. भगवती–आराधना में कहा गया है कि जब तक राग (इच्छा) मोह और लोभ (मूर्छा/आसक्ति) मन में उत्पन्न होती रहती है, तब तक ही आत्मा में बाह्य-परिग्रहण करने की बुद्धि होती है,541 इसलिए सर्वप्रथम हमें अपनी संग्रहेच्छा और आसक्तिवृत्ति का त्याग करना होगा। 2. परिग्रह के मूल में कामना होती है और दशवैकालिक में कहा गया है- "कामे कामहि कमियं खु दुक्खं,542 कामना ही दुःख का (तनाव का) कारण है, अतः हमें अपनी कामनाओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं को अल्पतम करना होगा, या उनका निरसन करना होगा। 540 देखेः आचारांगसूत्र 541 भगवती-आराधना -19/12 542 दशवैकालिकसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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