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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
समभाव की प्राप्ति सामायिक - चारित्र है । सामायिक - चारित्र का ग्रहण तनाव - प्रबधन में एक सहायक तत्त्व है ।
छेदोपस्थापनीय - चारित्र
सामायिक चारित्र में सामान्य रूप से सावद्य योग का त्याग किया जाता है । छेदोपस्थापनीय - चारित्र में पांच महाव्रतों का ग्रहण होता है । व्यक्ति तनाव से ग्रसित तब होता है, जब उसके हृदय में अशान्ति हो । यह अशान्ति तब आती है, जब वह हिंसक, असत्यवादी, चौर्यकर्म करनेवाला, कामभोगाभिलाषी और वस्तु का संग्रह करने वाला हो । यही पांच मुख्य रूप से व्यक्ति के मन को चंचल बनाते हैं, राग-द्वेषभाव को उत्पन्न करते हैं और राग-द्वेष तनावयुक्त जीवन का मूल कारण हैं। श्रमण - जीवन में राग-द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं होता, इसलिए तनाव उत्पन्न करने वाले प्राणातिपातादि व्रतों का जीवन भर के लिए त्याग किया जाता है। इसी को छेदोपस्थापनीय - चारित्र कहते हैं । सामान्यतः, इसे बड़ी दीक्षा भी कहा जाता है।
परिहारविशुद्धि चारित्र -
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परिहारविशुद्धि का अर्थ है- गण या शिष्य परिवार का त्याग करके आत्मविशुद्धि की विशिष्ट साधना करना। जिस आचरण के द्वारा कर्मों का अथवा दोषों का परिहार होकर निर्जरा के द्वारा विशुद्धि हो, वह परिहारविशुद्धि चारित्र है । कर्मों के बंध का हेतु है- कषाय और कषाय ही तनावपूर्ण जीवन का कारण है । परिहारविशुद्धि चारित्र में कषायों का परिहार कर आत्मविशुद्धि की जाती है। आत्मविशुद्धि की अवस्था ही तनावमुक्ति की अवस्था है।
सूक्ष्मसम्पराय - चारित्र
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जिस अवस्था में कषायवृत्तियाँ क्षीण होकर किंचित् रूप में ही अवशिष्ट रही हों, वह सूक्ष्मसम्पराय - चारित्र है । कषाय- प्रवृत्तियाँ जितनी तीव्र होती हैं, व्यक्ति उतना ही अधिक अशांत होता है। कषाय की तीव्रता जितनी होगी, उतना ही तनाव बढ़ेगा और जहाँ कषाय का सूक्ष्म अंश ही शेष हो, वहाँ तनाव का भी सूक्ष्म अंश ही रहेगा, जिसे समाप्त होने में समय नहीं लगता । यह चारित्र दसवें गुणस्थान में मात्र सूक्ष्मलोभ अर्थात् मात्र देहभाव की अवस्था में होता है। तनाव की इस अंशमात्र स्थिति में क्रोध, मान और माया पूर्णतः समाप्त हो जाते हैं। जिस अवस्था में इन तीनों कषायों का उपशम व क्षय हो जाता है, केवल सूक्ष्म लोभ
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