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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 267 जिसके परिणामस्वरूप आत्मा अशुद्ध या विभावदशा में चली जाती है। यही विभावदशा आत्मा की तनावयुक्त दशा है। इस तनावयुक्त दशा से तनावमुक्त अवस्था में आने की प्रक्रिया ही सम्यकचारित्र है। सम्यकचारित्र तनाव-प्रबंधन का साधन है। स्वभावतः, नीचे की ओर बहने वाला पानी दबाव से ऊपर चढ़ने लगता है, इसी प्रकार आत्मा स्वभाव से शुद्ध होते हुए भी बाह्य मलों, कषाय आदि के दबाव से अशुद्ध बन जाती है। वस्तुतः, तनाव बाह्य निमित्तों से आत्मा के जुड़ाव के कारण होता है। बाह्य-विषयों के प्रति आसक्ति समाप्त होने पर आत्मा तनावमुक्त हो जाती है और वह अपने स्वाभाविक रूप को प्राप्त कर लेती है। सम्यकचारित्र का कार्य बाह्य-पदार्थों के प्रति आत्मा की आसक्ति को समाप्त कर उसे स्वाभाविक-दशा अर्थात् वीतरागदशा में ले जाना है। चारित्र के प्रकार - तनाव उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से विमुख होकर तनावमुक्ति की दिशा में किया जाने वाला प्रयत्न चारित्र है। उस प्रयत्न से आत्मा के परिणामों में वासनाजन्य विकल्प शांत होते हैं एवं उसमें विशुद्धि आती है। विशुद्धि या तनावमुक्ति की इस प्रक्रिया (चारित्र) के पांच प्रकार माने गए हैं- 1. सामायिक-चारित्र, 2. छेदोपस्थापनीय-चारित्र, 3.,परिहारविशुद्धि-चारित्र, 4. सूक्ष्मसम्परायचारित्र और 5. यथाख्यात चारित्र। सामायिक-चारित्र - . . सामायिक का अर्थ है- समभाव की प्राप्ति एवं विषम भावों का निवारण। अशान्ति का मूल कारण चित्तवृत्ति की विषमता है और इसी का परिणाम है- कलह अर्थात् तनाव। जब तक मन में राग-द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, अहंकार आदि विषमभावों की भयंकर ज्वालाएँ जलती रहेंगी, - तनावमुक्ति सम्भव नहीं होगी। तनावमुक्ति हेतु सामायिक समभाव की साधना आवश्यक है। चारित्र की अनुपासना समभाव की साधना का एक प्रयत्न है। सामायिक-चारित्र का साधक यह प्रयत्न करता है कि वह . अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में मन को विचलित नहीं करे, शत्रु व मित्र के प्रति समभाव रखे। सामायिक-चारित्र को दूसरे शब्दों में सावध-योग-क्रिया-विरति कहा गया है, अर्थात् पापक्रियाओं अथवा तनाव उत्पन्न करने वाली क्रियाओं का त्याग करना। जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन में डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं- “वासनाओं, कषायों एवं राग-द्वेष की वृत्तियों से निवृत्ति तथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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