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जैनधर्म दर्शन में तनाव
दूसरे शब्दों में, तनावों के निराकरण का प्रयत्न करना ही सम्यक्चारित्र
है
. वस्तुतः, तनावमुक्त शुद्ध आत्मा, जिसका हमें साक्षात्कार करना है, वह हमारे भीतर ही है। जिस प्रकार बीज में यह सामर्थ्य होती है कि वह उसके ऊपर के आवरण को तोड़कर स्वयं को वृक्ष के रूप में विकसित कर सकता है, उसी प्रकार आत्मा में यह शक्ति है, कि वह वासनाओं, कषायों और राग-द्वेष की वृत्तियों से उत्पन्न तनाव के निराकरण कर तनावमुक्त आत्मदशा का साक्षात्कार कर सकता है। सम्यकचारित्र तनावों के कारणों अर्थात् वासनाओं, कषायों और राग-द्वेष की वृत्तियों निराकरण करने में एक क्रियात्मक तत्त्व है। वह स्व-सृजित आवरणों को तोड़ने का प्रयास है। सम्यकचारित्र का स्वरूप -
सम्यकचारित्र का अर्थ है- चित्त या आत्मा की वासनाओं की मलिनता और अस्थिरता को समाप्त करना।29 जिस प्रकार पानी में हवा से उड़कर धूल-मिट्टी मिल करके पानी को गंदा कर देती है, उसी प्रकार हमारी आत्मा में कषायरूपी कचरा मिलकर उसे अशुद्ध कर देता है। आत्मा की शुद्धि की जो प्रक्रिया है, वही सम्यकचारित्र है। चित्त अथवा आत्मा की वासनाजन्य मलिनता और अस्थिरता ही तनाव को उत्पन्न करती है। तनाव आत्मा की वैभाविक-दशा है। निश्चयनय. की दृष्टि से तो आत्मा स्वाभाविक रूप से शुद्ध है। समयसार में कहा गया है- "तत्त्व-दृष्टि से आत्मा शुद्ध है। 530 भगवान् बुद्ध भी कहते हैं"भिक्षुओं! यह चित्त स्वाभाविक रूप से शुद्ध है।"531 गीता में भी आत्मा को अविकारी कहा गया है,532 फिर भी विषयवासनाजन्य कषाय-रूपी कचरा भी इसी में है।
उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि आत्मा का स्वभाव तो शुद्ध ही है, किन्तु बाह्य-तत्त्वों के कारण आत्मा विभावदशा को प्राप्त करती है। आत्मा का शुद्ध स्वभाव ही आत्मा की तनावमुक्त अवस्था है। कषायें, वासनाएँ चित्त में विकलता एवं चंचलता उत्पन्न कर देती हैं,
529 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, - पृ. 84
समयसार - 151
अंगत्तर निकाय - 1/5/9 532 गीता -2/25
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