SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति सम्यग्ज्ञान प्राप्त किया हुआ व्यक्ति कभी भी अपने तनावमुक्ति के लक्ष्य से च्युत नहीं होता और तनावमुक्ति पाकर ही रहता है। ज्ञान ही व्यक्ति को आत्म-अनात्म का विवेक सिखाता है। जो 'स्व' एवं 'पर' के स्वरूप को जान लेता है, 'स्व' को जानकर 'पर' पदार्थों के प्रति ममत्व-भाव नहीं रखता है, वही मुक्त होता है। यहाँ हम यह भी कह सकते हैं, कि उसको यह भी ज्ञात हो जाता है कि उसका यह जो शरीर है, वह भी पुद्गलरूपी 'पर' पदार्थ है । जहाँ 'पर' से ममत्व हटा, स्व तथा पर का भेद - ज्ञान हुआ, वहाँ सभी तनाव शांत हो जाते हैं, मात्र शांति का अनुभव होता है। ऐसा अनुभव ही तनावमुक्ति की अवस्था है। सम्यक् चारित्र और तनाव सम्यक् तनाव - प्रबंधन के लिए सम्यग्दर्शन एवं विवेकज्ञान के साथ-साथ सम्यक् आचरण होना अति आवश्यक है। 'दर्शन' मात्र एक अनुभूति है, उस अनुभूति की समीक्षा करना ज्ञान है, सम्यग्ज्ञान होने पर उसका अनुसरण या पालन करना आवश्यक है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान के द्वारा प्राप्त योग्य विधि का प्रयोग करना ही सम्यक्चारित्र है । डॉ. सागरमल जैन ने अपनी शोध-कृति में लिखा है- "दर्शन एक परिकल्पना (हाइपोथेसिस) है, ज्ञान प्रयोग - विधि है और चारित्र प्रयोग है |527 वस्तुतः, सम्यक्चारित्र तनावमुक्ति की दिशा में उठाया गया चरण है। सिर्फ सम्यग्दर्शन या सम्यग्ज्ञान अकेला कुछ नहीं कर सकता, उसके लिए सम्यकचारित्र होना अति आवश्यक है। तीनों के संयोग से ही व्यक्ति तनावों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या मोक्ष अर्थात् पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था की उपलब्धि है | 528 ज्ञान के द्वारा हम तनाव के कारणों, जैसेइच्छाएँ, अपेक्षाएँ, वासनाएँ, कषाय और राग-द्वेष की वृत्तियों, जो आत्मा को तनावयुक्त बनाती हैं, के स्वरूप को जानते हैं, साथ ही तनाव के इन कारणों के निराकरण के उपायों को भी जानते हैं। हम यह जानते हैं कि त्यागने योग्य क्या है और ग्रहण करने योग्य क्या है। तनाव के कारणों एवं उनके निराकरण के उपायों को जानकर एवं उन पर विश्वास रखकर तनावमुक्ति के लिए प्रयत्न करना सम्यक्चारित्र है । 527 528 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, आचारांग नियुक्ति 244 Jain Education International - - 265 For Personal & Private Use Only पृ. 84 www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy