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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
ही व्यक्ति के चित्त का निरोध करती है और चित्त का निरोध कर तनावमुक्ति की दशा में ले जाने का प्रयत्न करती है। मूलाचार में भी कहा गया है -"जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में सम्यग्ज्ञान कहा गया है। 22 जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है और जिससे मैत्री-भाव प्रभावित होता है, उसको ही जिनशासन में सम्यग्ज्ञान कहा गया है। 523 ऐसा ज्ञान ही तनावमुक्ति का साधन है। आचार्य यशोविजयजी ज्ञानसार में लिखते हैं- "मोक्ष अर्थात तनावमुक्ति के हेतुभूत एक पद का ज्ञान भी श्रेष्ठ है, जबकि तनावमुक्ति में अनुपयोगी विस्तृत ज्ञान भी व्यर्थ है। 324 मोक्ष अथवा तनावमुक्ति के लिए आध्यात्मिक-ज्ञान ही श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक-ज्ञान के अभाव में व्यक्ति तनावपूर्ण जीवन जीता है। उसे इस बात का भान भी नहीं होता कि . उसके तनाव के कारण आखिरकार हैं क्या? आध्यात्मिक-ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है और इस ज्ञान के होने पर व्यक्ति स्वयं ही तनावों के कारणों को जान लेता है, समझता है और उनका निराकरण भी करता है। सम्यकज्ञान से ही आत्म-बोध होता है, 'स्व' का साक्षात्कार होता है, जो विकल्प या विचारशून्यता की अवस्था है, विकल्पशून्यता की अवस्था ही तनावमुक्ति की अवस्था है। ज्ञान की यह निर्विकल्प अवस्था ही मोक्ष है और मोक्ष पूर्णतः तनावमुक्ति की अवस्था है, हम यह भी कह सकते हैं कि पूर्णज्ञान या केवलज्ञान तनावमुक्ति की अवस्था है, साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि तनावमुक्ति होने पर ही मोक्ष होता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं- “जो सर्वनयों (विचार-विकल्पों) से शून्य है, वही आत्मा है और वही केवलज्ञान और केवलदर्शन से युक्त कहा जाता है। 525 केवलज्ञान वाला मोक्ष को प्राप्त करता है। आत्मस्वरूप का चिन्तन करना एवं आत्मा, अनात्मा का विवेक कर राग आदि तनावों के कारणों से बचने के लिए व्यक्ति का ज्ञान सम्यक् होना आवश्यक है। 'भक्तपरिज्ञा' में कहा गया है- "जैसे धागा पिरोयी हई सई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञान से युक्त जीव संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता। 526 ठीक इसी प्रकार,
24- मूलाचार - 5/85
मूलाचार - 5/86 ज्ञानसार - 5/2 समयसार – 144 भक्त परिज्ञा - 86
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