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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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उपसंहार - सम्यग्दर्शन जीवन जीने के प्रति एक दृष्टिकोण है।520 हमारे जीवन की सार्थकता और जीवन के लक्ष्य 'मोक्ष की प्राप्ति भी इसी दृष्टिकोण के आधार पर ही होती है, जैसी हमारी दृष्टि होगी, वैसा ही हमारा जीवन होगा, क्योंकि जैसी दृष्टि होती है, वैसी ही जीवन जीने की शैली होती है। हमारी जीवन जीने की शैली ही हमारे जीवन का निर्माण करती है। सम्यक् दृष्टिकोण तनावमुक्त करेगा और मिथ्या दृष्टिकोण तनावग्रस्त बनाएगा। मिथ्यादृष्टि का जीवन दुःख, पीड़ा और तनावों से युक्त होता है। यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यक नहीं होगा, तो वह कभी भी तनावमुक्त स्थिति को नहीं पा सकेगा। उसका जीवन सुख और शान्तिमय नहीं होगा। जिस प्रकार परिवार में बालक अपने योगक्षेम की सम्पूर्ण जिम्मेदारी माता-पिता पर छोड़कर चिन्ताओं से मुक्त एवं तनाव से रहित सुख और शान्तिपूर्ण जीवन जीता है, उसी प्रकार साधक व्यक्ति भी अपने योगक्षेम की चिन्ता से मुक्त होकर निश्चिन्त, तनावरहित, शान्त और सुखद जीवन जी सकता है। इस प्रकार, तनावरहित, शान्त और समत्वपूर्ण जीवन जीने के लिए सम्यग्दर्शन एवं श्रद्धावान होना आवश्यक है। इससे वह दृष्टि मिलती है, जिसके आधार पर हम अपने ज्ञान को भी सही दिशा में नियोजित कर उसे यथार्थ बना सकते हैं।21 सम्यकज्ञान और तनाव-प्रबंधन - ... सम्यज्ञान ही तनाव-प्रबन्धन का आधार है। सम्यज्ञान से ही तनावमुक्ति संभव है। तनावमुक्ति ही आनन्द की अवस्था है। अज्ञानदशा में विवेकशक्ति का अभाव होता है और विवेकहीन व्यक्ति को उचित और अनुचित का अन्तर ज्ञात नहीं होता। प्रबन्धन की पहली शर्त यही है कि व्यक्ति अपने अज्ञान अथवा अयथार्थ ज्ञान का निराकरण कर सम्यक-ज्ञान प्राप्त करे, क्योंकि सम्यग्ज्ञान तथा आत्म-अनात्म या स्व-पर के विवेक द्वारा. 'पर' के प्रति ममत्व के आरोपण से बचा जा सकता है, क्योंकि 'पर' पदार्थों पर ममत्व का आरोपण ही व्यक्ति के तनाव का मुख्य कारण होता है। जो अपना नहीं है, उसे अपना मानकर उसके निमित्त से व्यक्ति तनावों से ग्रस्त होता है। जो व्यक्ति को तत्त्वों . के ज्ञान के माध्यम से स्व-पर स्वरूप का भान कराता है, हेय और उपादेय का ज्ञान कराता है, वही सम्यग्ज्ञान है। सम्यक्-ज्ञान की साधना
और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 61 521 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. 62
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