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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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का अंश विद्यमान रहता है, उस अवस्था को सूक्ष्मसम्पराय-चारित्र या सूक्ष्म तनावयुक्त अवस्था कह सकते हैं। यथाख्यात-चारित्र -
यथाख्यात-चारित्र की अवस्था को पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था कहा जा सकता है। इस अवस्था में मोह एवं तदजन्य कषाय और नोकषाय समग्रतः उपशांत व क्षीण हो जाते हैं। यथाख्यात-चारित्र में आत्मा शुद्ध व निर्मल होती है और आत्मविशुद्धि की यही दशा तनावमुक्ति की दशा है।
डॉ. सागरमल जैन ने वासनाओं के क्षय, उपशम और क्षयोपशम के आधार पर चारित्र के भी तीन भेद किए हैं -1. क्षायिक, 2. औपशमिक और 3. क्षायोपशमिक। 1. क्षायिक - क्षायिक चारित्र हमारे आत्मस्वभाव से प्रतिफलित होता है। तनाव की शून्यता से आत्मा में जो विशुद्धता और निर्मलता होती है, वह क्षायिक-चारित्र है। तनाव उत्पन्न होने का मूल कारण हैराग-द्वेष एवं मोह। मोहनीय-कर्म के सम्पूर्णतः क्षय होने पर ही क्षायिक चारित्र की उपलब्धि होती है। दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि समग्रतः तनावमुक्त अवस्था होने पर जिसकी उपलब्धि होती है, वह क्षायिक-चारित्र है। एक बार पूर्णतः तनावमुक्त होने पर वापस व्यक्ति तनावयुक्त नहीं होता, क्योंकि इस अवस्था में तनाव के कारणों का अभाव होता है। 2... औपशमिक-चारित्र - औपशमिक भाव को उपशम भी कहते हैं। कमों के विद्यमान रहते हुए भी उनके फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना उपशम है। तनाव के कारणों के होने पर भी उससे तनावग्रस्त नहीं होना उपशम है। वासनाओं और कषायों का दमन कर देने पर जो स्थिति होती है, वह औपशमिक-भाव है। इनके कारण जो तनाव उत्पन्न होता है, उसे कुछ काल के लिए दबा दिया जाता है, परन्तु वे दमित वासनाएँ कालान्तर में सजग होकर पुनः तनाव उत्पन्न कर देती हैं। इस प्रकार, सम्पूर्णतः तनावमुक्ति व आत्मशुद्धि की अवस्था की प्राप्ति नहीं होती। जैसे पानी में फिटकरी डालकर गंदगी को कुछ समय के लिए दबा दिया जाता है, किन्तु हलचल होने पर गंदगी पुनः ऊपर, आ जाती है, उसी प्रकार उपशम का काल समाप्त होते ही चित्त पुनः अशांत हो जाता है और पुनः व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है।
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