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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति विजय पा सकते हैं। क्रोधादि आवेगों को समभाव से सहन कर कोई प्रतिक्रिया नहीं करना, संवेग है और समभाव की क्रिया तनावमुक्ति की अवस्था पाने की क्रिया है । 260 या निर्वेद 'निर्वेद' शब्द का अर्थ है उदासीनता, वैराग्य अनासक्ति । तनावमुक्ति के लिए सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीनता का भाव रखना आवश्यक है, इसके अभाव में तनावों से मुक्त होना सम्भव नहीं है। हम जानते हैं कि तनावमुक्ति का मार्ग ही साधना का मार्ग है। जो बाधाएँ साधना - मार्ग में आती हैं, वे ही तनावमुक्ति के मार्ग में भी हैं। जब संसार के प्रति रुचि होगी, तो उसमें आसक्ति भी होगी । आसक्ति राग का ही रूप है और राग तनाव को उत्पन्न करने का मूल कारण है। सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीनता का भाव रखना तनावमुक्ति का मार्ग है । वैराग्य एवं उदासीनता के इस भाव को हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं मान लीजिए कि आपको किसी ने गाली दी या अपशब्द कहे, तो उन शब्दों का आपके मन पर असर होना स्वाभाविक है, परन्तु बाहर कोई अभिव्यक्ति नहीं करना, यह तो संवेग है, जबकि अपशब्द का आपके चित्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना 'निर्वेद' है। जब किसी भी बात का चित्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, तो वह घटना चाहे सुख देने वाली हो या दुःख देने वाली, चित्त में विचलन नहीं होगा । चित्त का विचलित या क्षुभित न होना ही तनावमुक्त होना है। 512 — अनुकम्पा इस शब्द का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है - अनु +कम्प, 'अनु' का अर्थ है - तदनुसार, 'कम्प' का अर्थ है- कम्पित होना, अनुकम्पा अर्थात् किसी के अनुसार कम्पित होना। दूसरे शब्दों में, दूसरे व्यक्ति को दुःख से पीड़ित देखकर उसके प्रति करुणा का भाव होना । यहाँ इसका अर्थ समझना आवश्यक है। इसका अर्थ है- दूसरे व्यक्ति के दुःख को अपना दुःख समझना। दूसरे के सुख - दुःख को अपना सुख-दुःख समझना ही अनुकम्पा है। 12 जिस व्यक्ति ने 'सम' की साधना कर ली है, या निर्वेद - भाव जिसके चित्त में हो, वह व्यक्ति तनावमुक्त होता है, उसे हम ज्ञानी कह सकते हैं और ज्ञानी दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझकर भी तनावमुक्त रह सकता है। दुःख ही तनाव का कारण है और अज्ञानता से दुःख प्राप्त होता है, साथ ही, अज्ञानतावश ही व्यक्ति 'पर' पर 'स्व' का आरोपण कर जीवन जीता है। जो व्यक्ति ज्ञानी Jain Education International - - 1 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों को तुलनात्मक अध्ययन - For Personal & Private Use Only पृ. 57 www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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