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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति व्यक्तियों में कषायादि या वासनाओं की तीव्रता इतनी अधिक रहती है कि उन्हें शांत करने के लिए वे, दुष्कर्म करने से भी पीछे नहीं हटते। वासनाएँ स्वादिष्ट भोजन के समान हैं। जिस प्रकार एक बार भोज्य-पदार्थों के सेवन करने से अल्प समय के लिए भोजन करने की वासना समाप्त हो जाती है, किन्तु फिर उसी स्वादिष्ट पदार्थ के सेवन के लिए मन आतुर हो जाता है, उसी प्रकार कामभोग की वासना भी एक बार भोग करने से शांत नहीं होती, अपितु पुनः - पुनः भोगने की इच्छा जाग्रत करते हुए मन को अशान्त बनाती है, और जहाँ शांति नहीं होती, वहाँ तनाव होता ही है, इसलिए वासनाओं को शांत करने के लिए उनका शमन करना ही होगा। उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा गया है"काम-भोग क्षणभर को सुख और चिरकाल तक दुःख देने वाले हैं। "11 दुःख तनावपूर्ण स्थिति को जन्म देता है, अतः वासनाओं का शमन करके ही तनावों से मुक्ति पाई जा सकती है। इस प्रकार, शमन भी तनावमुक्ति का एक श्रेष्ठ साधन है, फिर भी यह समझना आवश्यक है कि शमन, दमन से भिन्न है । संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' के आधार पर इसका अर्थ होगासम्यक् प्रयास या पुरुषार्थ । अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समत्व बनाए रखना सम्यक् प्रयास है। इसी प्रकार, तपादि के माध्यम से इन्द्रियों को नियंत्रित करने का अभ्यास भी सम्यक् पुरुषार्थ है। जब समत्व होगा, तो चित्त वृत्तियाँ विचलित नहीं होंगी और चित्त वृत्तियों का यह संतुलन तनाव की अनुभूति को कम करेगा है । भोग इन्द्रियों के द्वारा ही होता है, इन्द्रियां मांग करती रहती है और हम उन्हें पूर्ण करने के लिए आतुर रहते हैं, अतः इन्द्रियों को नियंत्रण में रखने का प्रयत्न ही सम्यक् पुरुषार्थ है । पुरुषार्थ से इन्द्रियों की चंचलता पूरी तरह समाप्त हो जाती है तथा व्यक्ति स्वयं को तनावमुक्त अनुभव करता है । = संवेग 'संवेग' शब्द का शाब्दिक - विश्लेषण करने पर उसका अर्थ प्राप्त होता है सम् + वेग । सम = सम्यक्, उचित। वेग गति अर्थात् इस प्रकार संवेग सम्यक् गति । सम्यक् गति मोक्ष - गति तक पहुंचाती है, मोक्ष तनावमुक्ति की ही अवस्था है। दूसरे अर्थ में, क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियों को सम करना संवेग है। जहाँ राग होता है, वहाँ ये चार कषाय भी आ जाते हैं। संवेग से इन कषायों पर 511 खणमित्तं सुक्खा बहुकाल दुक्खा Jain Education International - 259 उत्तराध्ययन - 14/13 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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