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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी न चाहो।"510 इस उपदेश से यह सिद्ध होता है कि जो कोई भी व्यक्ति तनावपूर्ण स्थिति में नहीं रहना चाहता है, तो वह दूसरों के लिए भी भय का या अविश्वास का निमित्त न बने। जब व्यक्तियों में इस प्रकार से समभाव का विकास होगा, तो एक-दूसरे के प्रति विश्वास बढ़ेगा और भय समाप्त हो जाएगा। भय की शून्यता भी तनावमुक्ति की स्थिति होती है।
दूसरे अर्थ में, 'सम' को चित्तवृत्ति का समत्व भी कहा जा सकता है, जिसका तात्पर्य है- सुख-दुःख, हानि-लाभ एवं अनुकूल-प्रतिकूलदोनों स्थितियों में समभाव रखना, चित्त विचलित नहीं होने देना। चित्त की चंचलता मानसिक-संतुलन को अस्त-व्यस्त कर उसे तनावग्रस्त बना देती है। मानसिक-संतुलन भंग होने से व्यक्ति तनाव की स्थिति में आ जाता है। दूसरे के निमित्त से जब कोई सुख मिलता है, तो व्यक्ति प्रसन्न-चित्त हो जाता है, किन्तु काल हमेशा एक-सा नहीं रहता है, कालान्तर में वही जब अन्य किसी निमित्त से दुःख पाता है, तो उसका चित्त शोकग्रस्त हो जाता है और व्यक्ति विलाप करने लगता है। विलाप तनाव की स्थिति को प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार, लाभ-हानि में भी व्यक्ति सम नहीं रह पाता है। अनुकूल स्थिति में वह शांत रहता है, तो प्रतिकूल स्थिति में व्याकुल हो जाता है। अतः, तनाव-मुक्ति के लिए . समत्व की साधना आवश्यक है। व्यक्ति का मन इतना चंचल होता है कि एक सुख आया नहीं कि उसमें दूसरे सुख की कामना जाग्रत हो जाती है और उस कामना की पूर्ति हेतु वह फिर तनावग्रस्त हो जाता है। इस प्रकार, मनुष्य किसी भी स्थिति में समत्व में नहीं रह पाता है, वह मन की चंचलता के कारण तनावग्रस्त ही रहता है, अतः तनाव-मुक्त जीवन जीने के लिए समभाव में रहने की साधना करनी होगी, चित्तवृत्तियों को संतुलित करना होगा, सुख में न प्रसन्न होना होगा और न दुःख में विचलित होना होगा। हर परिस्थिति का सामना समभाव से करना ही 'समत्व है। 'समत्व' की साधना ही तनावमुक्ति का साधन
प्राकृत भाषा के 'सम' शब्द के संस्कृत भाषा में तीन रूप होते हैं- 1.सम्, 2. शम, 3. श्रम। संस्कृत 'शम' के रूप में इसका अर्थ होता है- शांत करना, अर्थात् कषायाग्नि या वासनाओं को शांत करना। कुछ
510 बृहद्कल्पभाष्य - 4584
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