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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
तनाव शब्द को अंग्रेजी में स्ट्रेस (Stress) कहते हैं, जो (Latin) लेटीन शब्द (String) स्ट्रींग से बना है, जिसका अर्थ होता है- जोर से कसना या बांधना (to be drown tight).
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वस्तुतः, जो व्यक्ति की चेतना को चाह या चिन्ता से ग्रस्त बना देता है, उसे तनाव कहते हैं । मनोवैज्ञानिक - दृष्टि से चित्त या मन का • अशान्त होना ही तनाव है। दैहिक - दृष्टि से जो हमारी दैहिक - क्रियाओं का संतुलन (Hormony) भंग कर देता है, वह तनाव है। आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा या चित्तवृत्ति के समत्व या शान्ति का भंग हो जाना ही तनाव है।
जीवन जीना बहुत ही आसान हो सकता है, अगर हमारी सारी जैविक आवश्यकताएँ सहज रूप से ठीक उसी तरह पूरी हो जाएं, जिस तरह जैनदर्शन के अनुसार अकर्म भूमि में कल्पवृक्ष व्यक्ति की सभी आवश्यकताओं को पूरी कर देता हैं। जब व्यक्ति की प्रत्येक आवश्यकता पूरी हो जाती है, तब उसे न तो किसी तरह का विषाद होता है, न ही कोई दुःख होता है, उसकी ऐसी कोई समस्या भी नहीं होती है, जो उसे तनावग्रस्त बनाए, इसीलिए उस युग को सुखद ( सुषमा) कहते हैं, किन्तु वर्तमान में मनुष्य के सामने अनगिनत समस्याएँ हैं, क्योंकि उसकी इच्छाएँ या आकांक्षाएँ अनन्त हैं। व्यक्ति स्वप्न में तो चैतसिक स्तर पर अपनी हर इच्छा, चाहे वह जायज हो या नाजायज, पूरी कर लेता है, किन्तु जब आँखें खोलता है। तो हकीकत में उसे अपने सपने को वास्तविक रूप में पूरा करने की इच्छा पैदा हो जाती है। जब इच्छाएं पूरी नहीं होती या उनकी पूर्ति में कोई बाधा उत्पन्न होती है, तब व्यक्ति की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति में कुछ असामान्य परिवर्तन घटित होता है। यह असामान्य परिवर्तन ही तनाव कहलाता है ।
विभिन्न विद्वानों ने तनाव की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं। इनमें तनाव को एक दैहिक स्थिति मानने वाली परिभाषाएं निम्न हैं
क्रिसटी के अनुसार
"शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक आवश्यकताओं के कारण प्रतिक्रियास्वरूप आदमी में जो बदलाव आता है, उसे तनाव कहते हैं ।
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