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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान के चार लक्षण कहे गए हैं - 1. आज्ञारूचि - जिनाज्ञा के मनन-चिन्तन में रुचि, श्रद्धा एवं
भक्ति होना। 2. निसर्गरुचि - धर्मकार्यों के करने में स्वाभाविक रुचि होना। 3. सूत्ररुचि - आगम-शास्त्रों के पठन-पाठन में रुचि होना। 4. अवगाढ़ रुचि - द्वादशांगी के अवगाहन में प्रगाढ़ रुचि .. होना।404
तनावमुक्ति के लिए धर्मध्यान का आलम्बन ले सकते हैं, किन्तु धर्मध्यान के लिए भी कुछ आलम्बन आवश्यक माने गए हैं। बिना आलम्बन के धर्मध्यान का होना भी . सम्भव नहीं है। स्थानांगसूत्र में धर्मध्यान के चार आलम्बन बताए गए हैं
1. वाचना - आगमसूत्र आदि का पठन करना। 2. प्रतिपृच्छना - शंका-निवारणार्थ गुरुजनों से पूछना। 3. परावर्तन - पठित सूत्रों का पुनरावर्तन करना या उन्हें
दोहराना। 4. अनुप्रेक्षा – आगमों के अर्थ का चिन्तन करना।
उपर्युक्त वाचनादि आलम्बनों से धर्मध्यान की सिद्धि होती है, किन्तु जब तक व्यक्ति के जीवन में तनाव का स्तर होता है, तब तक धर्मध्यान में स्थिरता नहीं आती है। स्थिरता के अभाव में सिद्धि भी नहीं होती। स्थिरता के लिए स्थानांग में चार प्रकार की अनुप्रेक्षाएँ बताई गई
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एकत्वानुप्रेक्षा - जीव संसार में सदा अकेले ही परिभ्रमण करता है और अकेला ही सुख-दुःख का भोग करता हैऐसा चिन्तन करना है। अनित्यानुप्रेक्षा - सांसारिक-वस्तुओं की अनित्यता का चिन्तन करना। .. अशरणानुप्रेक्षा - जीव के लिए कोई दूसरा व्यक्ति, धन, .
परिवार आदि शरणभूत नहीं होते हैं- ऐसा चिन्तन करना।
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