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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 243 स्थानांगसूत्र में न केवल ध्यान के प्रकारों का वर्णन है, अपित प्रत्येक प्रकार के ध्यान के लक्षण आदि का भी विवेचन किया गया है। स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकार व लक्षण - ध्यान की सभी प्रक्रियाएँ अपनाने योग्य नहीं होती। स्थानांग में चार प्रकार के ध्यान कहे गए हैं। उनमें से प्रथम दो ध्यान मन को एकाग्र तो करते हैं, किन्तु उसे गलत दिशा में ले जाकर तनावग्रस्त बना देते हैं। शेष दो ध्यान, अर्थात् धर्म और शुक्ल-ध्यान ही व्यक्ति को तनावमुक्त करते हैं। कौनसा ध्यान करने योग्य है और कौनसा ध्यान नहीं करने योग्य है, इसका निर्णय स्थानांगसूत्र में दिए गए ध्यान के प्रकारों एवं लक्षणों के आधार पर स्वतः ही किया जा सकता है। स्थानांगसूत्र में ध्यान के प्रकारों एवं लक्षणों का विवरण इस प्रकार है - आर्तध्यान - किसी भी प्रकार के दुःख के आने पर शोक-मग्नता तथा चिन्तायुक्त मन की एकाग्रता आर्त्तध्यान है।478 आर्त्तध्यान निराशा की स्थिति है। आर्तध्यान में व्यक्ति दुःख आने पर शोकाकुल और चिंतित हो जाता है। वह उसी दुःख का स्मरण करता रहता है। आर्तध्यान में व्यक्ति के चिन्तायुक्त मन की एकाग्रता उसे तनावग्रस्त ही करती है। स्थानांगसूत्र में इस ध्यान के चार उपप्रकार बताए गए हैं", जो निम्नानसार हैं 1. अमनोज्ञ वस्तु का संयोग होने पर उसको दूर करने हेतु ... बार-बार चिन्तन करना। 2. मनोज्ञ वस्तु का संयोग होने पर उसका कभी वियोग न हो ऐसा बार-बार चिन्तन करना। 3. आतंक या भय होने पर उसको दूर करने का बार-बार चिन्तन करमा। 4. प्रीतिकारक काम-भोग का संयोग होने पर उनका वियोग न . हो- ऐसा बार-बार चिंतन करना। आर्तध्यान के इन चारों उपप्रकारों में 'चिंतन' शब्द का प्रयोग अवश्य है, किन्तु यहाँ चिन्तन का अर्थ चिंता से है और जहाँ चिंता होती 476 स्थानांगसूत्र, ध्यानसूत्र- 4/1/60, मधुकर मुनि स्थानांगसूत्र, ध्यानसूत्र-4/1/61, मधुकर मुनि 477 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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