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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
है, वहाँ तनाव अवश्य होता है। चिंतायुक्त व्यक्ति तनावग्रस्त होता ही है। मनोविज्ञान में तनावग्रस्त व्यक्ति के जो लक्षण बताए जाते हैं, स्थानांगसूत्र में प्रायः वही लक्षण आर्तध्यान से युक्त व्यक्ति के कहे गए हैं, जैसे -
1. क्रन्दनता - उच्च स्वर से आक्रन्दन करना, अर्थात् रोना। 2. शोचनता - दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। 3. तेपनता - आँसू बहाना। 4. परिवेदनता - करुणाजनक विलाप करना।78
अनिष्ट वस्तु का संयोग या इष्ट का वियोग होने पर मनुष्य जो दुःख शोक, संताप, आक्रन्दन या विलाप करता है। वे समस्त क्रियाएं उसकी तनावग्रस्तता को ही प्रकट करती हैं। रोग को दूर करने के लिए या प्रिय वस्तु नष्ट न हो जाए, इसके लिए चिन्तातुर रहना, वस्तुतः तनावग्रस्तता का ही लक्षण है।
जब दुःख आदि के चिन्तन में चित्त की एकाग्रता बनती है, तो वह ध्यान की कोटि में आ जाती है, किन्तुं ऐसा ध्यान आर्तध्यान कहलाता है और आर्तध्यान तनावग्रस्तता का ही सूचक है। रौद्रध्यान -
"हिंसा या परपीड़न की क्रूर मानसिकता में चित्तवृत्ति की एकाग्रता रौद्रध्यान है।479 तनाव का सबसे पहला प्रभाव मानव के मानस पर पड़ता है। तनाव की जन्मस्थली मन है और मन की अशांति मस्तिष्क को भी अशांत बना देती है। जब मस्तिष्क अशांत होता है, तो व्यक्ति रौद्रध्यान करने लगता है। रौद्रध्यान तनाव की स्थिति को और अधिक बढ़ा देता है। स्थानांगसूत्र में रौद्रध्यान के चार प्रकार कहे गए हैं:00 - 1. हिंसानुबन्धी – निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता कराने वाली
चित्त-वृत्ति की एकाग्रता। 2. मृषानुबन्धी - असत्य भाषण सम्बन्धी चित्त की एकाग्रता।
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478 स्थानांगसूत्र - 4/1/62
स्थानांगसूत्र - 4/1/60, मधुकर मुनि 480 स्थानांगसूत्र - 4/1/63, मधुकर मुनि
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