________________
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
रौद्रध्यान में परिवर्तित कर देती है। आर्त्तध्यान की उत्पत्ति राग से होती है और रौद्रध्यान की उत्पत्ति द्वेष से होती है । द्वेषजन्य प्रतिक्रियाएँ जब दूसरे के अहित के विचार से जुड़ जाती हैं, तो वे रौद्रध्यान का रूप ले लेती हैं।
आर्त्तध्यान हताशा की स्थिति है, रौद्रध्यान आवेगात्मक स्थिति है। आर्त्तध्यान में मन निराशा में डूब जाता है, चिन्तित व दुःखी होता है । निराशा, चिंता, दुःखी होना- ये सब तनाव के ही प्रकार कहे जा सकते हैं, क्योंकि इन्हीं से मन अशांत होता है । स्थानांग में भी दुःख के निमित्त को या दुःखरूप मनोदशा या परिणति को आर्त्तध्यान कहा गया है । 1440 ज्ञानार्णव में शुभचन्द्र लिखते हैं- 'ऋते भवम् आर्त्तम् - इस निरुक्ति के अनुसार, दुःख में होने वाली संक्लिष्ट परिणति का नाम आर्त्तध्यान है। 441
इसी प्रकार, राग-भाव से ज़ों उन्मत्तता होती है, वह केवल अज्ञान के कारण ही होती है, जिसके फलस्वरूप जीव उस अवांछनीय वस्तु की प्राप्ति से और वांछनीय की अप्राप्ति से दुःखी होता है- यही आर्त्तध्यान है । 442 रौद्रध्यान को तनाव की अंतिम सीमा भी कह सकते हैं। क्रूर, कठोर एवं हिंसक व्यक्ति को रुद्र कहा जाता है और उस रुद्र प्राणी के द्वारा जिस भाव से कार्य किया जाता है, उसके भाव को रौद्र कहते हैं। इस प्रकार, अतिशय क्रूर भावनाओं तथा प्रवृत्तियों से संश्लिष्ट ध्यान रौद्रध्यान है। 443 जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है, वह रुद्र व क्रूर कहलाता है और उस पुरुष के द्वारा जो ध्यान किया जाता है, वह रौद्रध्यान कहलाता है । 144
रौद्रध्यान में व्यक्ति स्वयं के स्वभाव को छोड़कर 'पर' में द्वेष - प्रवृत्ति करता है । 'पर' पर राग व द्वेष- दोनों ही तनाव के हेतु हैं। आर्त्तध्यान के चार भेद किए गए हैं 445
445
1. अनिष्ट संयोगरूप आर्त्तध्यान 2. आतुर चिंतारूप आर्त्तध्यान
440
स्थानांगसूत्र -247
441
25/23
ज्ञानार्णव दशवैकालिक'
442
443
. (1) ज्ञानार्णव - 26 / 2 (2) सर्वार्थसिद्धि - 9/28/445/10
444
महापुराण - 21 /42 (2) भगवती आराधना, मूल - 1703 / 1528 (1) ध्यानशतक, श्लोक 6, 7, 8, 9, (2) स्थानांगसूत्र
4/60-72
—
-
Jain Education International
231
For Personal & Private Use Only
मूलाचार - 396
www.jainelibrary.org