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________________ 232 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 3. इष्ट वियोगरूप आर्तध्यान 4. निदान चिंतनरूप आर्त्तध्यान प्रथम प्रकार के आर्तध्यान में, अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस आदि का संयोग होने पर उनसे वियोग कैसे हो- इसकी चिंता ही अनिष्ट-संयोग-रूप आर्तध्यान है। दूसरे शब्दों में, अनिष्ट का संयोग होने पर चित्त में एक प्रकार की व्याकुलता उत्पन्न होती है, जैसे- कान से अप्रिय शब्द सुनने या अपने प्रति निन्दासूचक शब्द सुनने पर, या नासिका से दुर्गंध आने पर, अथवा जीभ को कड़वा आदि स्वाद आने पर, अथवा त्वचा को कठोर, उष्ण आदि स्पर्श होने पर जब चित्त में यह वृत्ति बनती है कि यह संयोग कैसे शीघ्रता से दूर हो, अथवा इनके कारण मन में एक प्रकार का विषाद उत्पन्न होता है, वह विषाद ही तनाव का रूप ले लेता है। तनाव का एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति में जो अनिष्ट संयोगों को दूर करने अथवा यह सोचने की वृत्ति कि इनका मुझसे वियोग कब होगा, यही अनिष्ट-संयोगरूप आर्त्तध्यान है। स्पष्ट है कि अनिष्ट-संयोग के स्पर्श से चित्त की शांति समाप्त हो जाती है और एक प्रकार का तनाव उत्पन्न हो जाता है। तनाव के उत्पन्न होने में अनिष्ट का संयोग भी एक कारण है, इसलिए अनिष्ट के संयोगरूप आर्तध्यान को हम तनाव के हेतु के रूप में स्वीकार कर सकते हैं। आर्तध्यान का दूसरा रूप आतुर-चिंतारूप आर्तध्यान है। अनुकूल के संयोग और प्रतिकूल से वियोग की चिंता ही आतुर- चिंतारूप आर्तध्यान कही जाती है। आतुरता चित्त की विकल्पता की सूचक है। चित्त की अनुकूलता को पाने के लिए और प्रतिकूल से वियोग के लिए अधिक सक्रिय होना ही आतुरता है। जहाँ आतुरता है, वहाँ चिंता है ही और आतुरता और चिंता-दोनों ही तनाव के मुख्य हेतु हैं, जैसे- एक विद्यार्थी को जब तक परीक्षा का परिणाम नहीं आता है, तब तक यह चिंता सताती रहती है कि कब मुझे पास होने की सूचना मिले, कहीं मैं फेल तो नहीं हो जाऊं? जब तक उसे यह चिंता रहती है, तब तक वह तनावग्रस्त ही रहता है। इस प्रकार, आतुर चिंतायुक्त दूसरा प्रकार भी चित्त के तनावयुक्त होने का ही सूचक है। तनाव का मुख्य कारण राग है और राग में आसक्त व्यक्ति को इष्ट-विषय की प्राप्ति होने पर, उसका वियोग न हो जाए- ऐसा चिंतन आर्त्तध्यान का तीसरा प्रकार इष्ट-वियोगरूप आर्तध्यान है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने पर, अथवा उसे जीवन में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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