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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
सकता है। जैनधर्म के अनुसार ध्यान के चार प्रकार, बताए गए हैं38 - 'चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा - अट्टेझाणे, रोद्देझाणे, धम्मेझाणे, सुक्केझाणे' -अर्थात् आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
सामान्यतया, आर्तध्यान व रौद्रध्यान को तनाव का हेतु और धर्मध्यान व शुक्लध्यान को तनावमुक्ति का साधन माना गया है। वस्तुतः, जो ध्यान मन में विकल्पों को जन्म देते हैं, या जिन ध्यानों से चैत्तसिक-स्तर पर व्यक्ति और अधिक विचलित हो जाता है, वे आर्त व रौद्रध्यान हैं। इसके विपरीत, जिन ध्यानों से मन की चंचलता, वासनाएँ, दुःख आदि शांत होते हैं, वे धर्म एवं शुक्ल- ध्यान हैं। ध्यानशतक में कहा गया है -
अट्ट रूदं धम्म सुक्कं झाणाइ तत्थ अंताई' . निव्वाणसाहणाइं भवकारणमट्ट-रूद्दाई।।5।।139
अर्थात, आर्त्त और रौद्र ध्यान संसार के कारण हैं और धर्मध्यान और शुक्लध्यान निर्वाण के हेतु हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान राग-द्वेषजनित होने से तनावग्रस्तता के कारण हैं, इसलिए इन्हें अप्रशस्त या अशुभ ध्यान कहा गया है, जबकि धर्मध्यान व शुक्लध्यान कषाय-भाव से रहित होने से तनावमुक्ति के हेतु हैं, इसलिए इन्हें प्रशस्त या शुभ-ध्यान कहते हैं।
यहाँ हमें सर्वप्रथम आर्त्त और रौद्र का अंतर समझ लेना होगा। चाह, चिंता, इच्छा-आकांक्षा, अपेक्षा आदि से युक्त चित्तवृत्ति आर्तध्यान है। दूसरे शब्दों में कहें, तो इष्ट का वियोग होने पर, अनिष्ट का संयोग होने पर, इच्छित की प्राप्ति न होने पर तथा अनिच्छित की प्राप्ति होने पर चित्त में जो आकुलता-व्याकुलता उत्पन्न होती है, वही आर्त्तध्यान है। यही आकुलता- व्याकुलता तनाव उत्पन्न करती है। इष्ट के संयोग में राग और अनिष्ट के संयोग में द्वेष की वृत्ति होती है, जब तक यह वृत्ति प्रतिक्रिया का रूप नहीं लेती, तब तक चित्त-विक्षोभ नहीं होता है, किन्तु जब द्वेष की वृत्ति प्रतिक्रिया का रूप ले लेती है, तब वह आर्त्तध्यान को
438 (1) तत्त्वार्थसूत्र-9/29ए (2) स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थान, 1/60 (3) औपपातिकसूत्र-30 (4)
पडिक्कमामि चउहिं झाणेहिं -अट्टेणंझाणेण, रूदेणझाणेणं, धम्मेणंझाणेणं, सुक्केणं झाणेण - ।
आवश्यक श्रमणसूत्र 439
ध्यानशतक, श्लोक-5, जिनभद्रगणिकृत
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