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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति निमित्त से होती है। व्यक्ति बाह्य तत्वों का संयोग मिलने पर उनके प्रति राग-द्वेष करता है, जो चित्त में तनाव उत्पन्न करने का मुख्य कारण हैं गीता में कहा गया है 23 - मन के द्वारा विषयों का संयोग होने पर इनका चिन्तन होता है और विषयों का चिंतन करने वाले उस पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों को भोगने की कामना उत्पन्न होती है और कामना की पूर्ति में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढभाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है और विवेक - बुद्धि के नष्ट हो जाने से यह पुरुष अपने लक्ष्य या साधना से च्युत हो जाता है, अर्थात् तनावयुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। तनावयुक्त स्थिति में व्यक्ति अपना मानसिक संतुलन खो देता है। विवेक - शक्ति का नाश होने से वह अपने स्वरूप अर्थात् आत्मा के निज स्वभाव को प्राप्त नहीं कर पाता है। आत्मा के स्वभाव में आने के लिए अर्थात् तनावमुक्त दशा को पाने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति मन को वश में करे, उसे 'अमन' बना दे, अर्थात् इच्छा और आकांक्षा - रूपी विकल्पों से मुक्त हो जाये । आत्मा जब स्वभावदशा में होती है, अर्थात् ज्ञाता - द्रष्टाभाव में स्थित होती है, तब मन विकल्पमुक्त होता है, अर्थात् मन अमन हो जाता है। मन का यह अमन होना ही तनावमुक्त होना है। 224 जैनदर्शन के अनुसार सिद्ध आत्मा अमन होती है। वस्तुतः केवली भी समनस्क होते हैं, किन्तु उनका मन अमन हो जाता है। उनके मन में कोई विकल्प उठते नहीं, वे राग-द्वेष और मोह से रहित होते हैं। उनमें इच्छा और आकांक्षा भी नहीं होती है, अतः उनका मन निर्विकल्प या अमन हो जाता है। · उनकी आत्मा भी शुद्ध होती है, वे अपने ज्ञाता - द्रष्टाभावरूप स्वभाव में ही निमग्न रहते हैं। कैसी भी बाह्य परिस्थिति हो वे विकल्प को प्राप्त नहीं होते हैं, अर्थात् विभावदशा में नहीं जाते है। वस्तुतः, उनका विकल्पों में नहीं जाना ही तनावमुक्त रहना है। आत्म-परिशोधन की इस प्रक्रिया में सफल होने के लिए विभावदशा के परित्याग के प्रयत्न करने होंगे। विभावदशा के परित्याग के लिए विकल्पों से बाहर निकलना होगा, तभी व्यक्ति तनावमुक्त दशा 423 गीता - 2 /62, 63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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