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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 223 संस्कारजन्य विभावदशा में है, तब तक वह अशुद्ध है। वस्तुतः, जैनसाधना आत्मा के परिशोधन की ही एक प्रक्रिया है। संसार दशा में आत्मा कर्मों से युक्त होने के कारण अशुद्ध रूप में होती है। आत्मा के इस अशुद्ध रूप को दूर करना ही जैन-अध्यात्ममार्ग का मुख्य लक्षण है। चेतना में कर्मों के संस्कारों की सत्ता न रहें, वह उनसे प्रभावित न हो, उसमें राग-द्वेष, मोह एवं कषाय रूपी तरंगें न उठे, चित्त में विकल्पता एवं तनाव न हो- यही आत्मविशुद्धि या स्वभावदशा की स्थिति है। स्वभाव एक ऐसा तत्त्व है, जो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है, जैसे आग का संयोग हटते ही पानी स्वतः शीतल होने लग जाता है। पानी का शीतल होना स्वाभाविक है, किन्तु उसके गरम होने में आग का संयोग अपेक्षित होता है। वह 'पर' अर्थात् अग्नि के संयोग से ही विभावदशा को प्राप्त करता है। इसको हम इस तरह भी कह सकते हैं कि बाह्य-पदार्थों के संयोग से ही विभावदशा की प्राप्ति या स्वभाव से च्युत होने की स्थिति बनती है। चेतना की विभावदशा में अवस्थिति होना ही तनावयुक्त दशा कही जाती है। डॉ. सागरमलजी लिखते हैं- "मानसिक-विक्षोभ या तनाव को हमारा स्वभाव इसलिए नहीं माना जा सकता है, क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते हैं, उसका निराकरण करना चाहते हैं और जिसे आप छोड़ना या मिटाना चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता।"422 राग-द्वेष, कषाय, अहंकार आदि तनाव उत्पन्न करते है। ये सभी 'पर' के निमित्त से होते हैं। इनका विषय “पर है और इसलिए ये तनाव का कारण हैं अर्थात् विभावदशा का कारण है और इस विभावदशा से स्वभावदशा में लौटना ही तनावमुक्ति की प्रक्रिया है। आत्मा स्वभावतः तो शुद्ध, बुद्ध और तनावमुक्त है, किन्तु 'पर' के संयोग से वह अशुद्ध या तनावयुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाती है। आत्मा के इस शुद्ध स्वभाव पर कर्मरूपी आवरण इतने घनिष्ठ होते हैं कि आत्मा का लक्ष्यशोधन करना और तनावमुक्त अवस्था में आना कठिन हो जाता है। राग-द्वेष, कषाय और मोह-रूपी कर्मसंस्कारों के कारण जब कर्मवर्गणाओं के पुद्गल आत्मा से चिपकते हैं, तो आत्मा विभावदशा को प्राप्त करती है। इस प्रकार, विभावदशा का मूल कारण मन की चंचलता है। मन चंचल होता है, किन्तु उसकी यह चंचलता सदैव बाह्य-तत्त्वों के 422 धर्म का मर्म, पृ. 16 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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