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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
(स) अन्य लक्ष्यों का प्रतिस्थापन - जब मूल लक्ष्य में सफलता प्राप्त नहीं हो पाती है, तो व्यक्ति अपना लक्ष्य ही बदल देता है तथा दूसरे लक्ष्य को निर्मित कर लेता है। व्यक्ति को जब ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है, जो उसके नियंत्रण के बाहर है, तो ऐसी स्थिति में वह अपना लक्ष्य बदल देता है, जैसे- कोई नृत्यकला में अपना व्यक्तित्व बनाने का लक्ष्य रखे, किन्तु किसी हादसे में यदि वह अपना पैर ही खो दे, तो उसे अपना लक्ष्य बदलना होता है। (द) व्याख्या एवं निर्णय - जब व्यक्ति के सामने दो वांछनीय, किन्तु परस्पर विरोधी इच्छाएँ होती हैं, तो उसमें वह द्वंद्व की स्थिति में होता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति स्वयं को. तनावग्रस्त पाता है। फलतः, तनाव से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को पूर्व अनुभव के आधार पर सोच-विचार कर अन्त में किसी एक का चुनाव करने का निर्णय लेना पड़ता है।" जिस प्रकार एडवर्ड अष्टम के समक्ष यह समस्या थी कि वह राजां रहे या सिम्पसन से विवाह करे ? तब उन्होंने राजपद का त्याग कर सिम्पसन से विवाह करने का निर्णय लिया था। ' अप्रत्यक्ष विधियाँ - अप्रत्यक्ष विधियों का प्रयोग केवल दुःखपूर्ण तनाव को कम करने के लिए किया जाता है। ये विधियाँ निम्न हैं - (अ) शोधन - जब व्यक्ति की काम-प्रवृत्ति तप्त नहीं होती है, तो उसका सबसे गहरा असर उसकी मानसिकता पर पड़ता है। व्यक्ति की ये प्रवृत्तियाँ पूर्ण न होने के कारण उसमें तनाव उत्पन्न हो जाता है, तब वह कला, धर्म, साहित्य, समाजसेवा आदि में रुचि लेकर अपने तनाव को कम करता है। व्यक्ति स्वयं ही तनाव के कारण को समझकर अपने मन का शोधन कर लेता है। वह ऐसा कार्य करने लगता है, जो उसे रुचिकर लगता है। (ब) पृथक्करण - इसके अंतर्गत व्यक्ति अपने आपको उस स्थिति से अलग कर लेता है, जिसके कारण तनाव उत्पन्न होता है, जैसे -जब कोई किसी को अपमानित कर देता है, तो वह उन लोगों से मिलनाजुलना छोड़ देता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो व्यक्ति उस स्थान पर या उन लोगों के समीप आना-जाना छोड़ देता है, जो उसे तनावपूर्ण स्थिति में ले जाते हैं। ऐसा करने से उसे तनावमुक्ति का अनुभव नहीं होता है।
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