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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति (स) प्रत्यावर्तन इस विधि को व्यक्ति तब अपनाता है, जब वह स्वयं को सुरक्षित नहीं पाता है, या उसमें ईर्ष्या की भावना उत्पन्न हो जाती है, जो उसे तनावग्रस्त बनाती है। ऐसे में व्यक्ति अपने तनाव को कम करने के लिए वैसा ही व्यवहार करने लगता है, जैसा वह पहले करता था, जैसे - जब घर में दो बालक हो जाते हैं, तब बड़ा बालक माता-पिता का उतना ही प्रेम पाने के लिए छोटे बालक की तरह घुटनों से चलना, हठ करना आदि क्रियाएँ करने लगता है । - (द) दिवास्वप्न सपने, कल्पनाएँ व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाती हैं, किन्तु जो इच्छाएँ पूरी नहीं होती, व्यक्ति उन इच्छाओं की पूर्ति स्वप्नों या कल्पनाओं के माध्यम से करता है। ऐसा करने से कुछ समय के लिए उसकी पींड़ा कम हो जाती है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति तनाव को कम करने के लिए कल्पना- जगत् में विचरण करने लगता है, जैसेछोटे बालक को हठ करने पर यह समझाया जाता है कि वह वस्तु उसे बड़े होने पर मिलेगी। इसी कल्पना में वह बालक फिर से हँसने लगता है । (ई) आत्मीयकरण कभी-कभी व्यक्ति हीनता की भावना से इतना तनावग्रस्त हो जाता है कि वह अपना आत्मविश्वास खो देता है और क्रमशः अधिकाधिक तनावग्रस्त होता जाता है। ऐसे में व्यक्ति को आत्मीयकरण विधि को अपनाना चाहिए । इस विधि के अन्तर्गत तनावग्रस्त व्यक्ति किसी महान् पुरुष, अभिनेता राजनीतिज्ञ, आदि के साथ एकात्मता हो जाने का अनुभव करता है, जैसे -बालक अपने पिता से व बालिका अपनी माता से तादात्म्य स्थापित करके उनके कार्यों का अनुकरण करके प्रसन्न होते हैं, जिससे उनका तनाव कम होता जाता है। 217 Jain Education International - - . (फ) निर्भरता जब व्यक्ति अपना जीवन-यापन नहीं कर पाता है, तो उसमें एक हीनता की भावना उत्पन्न होती है, उसमें निर्णय लेने की क्षमता भी क्षीण होती जाती है, ऐसे में व्यक्ति तनाव कम करने के लिए अपने-आपको किसी दूसरे पर निर्भर कर अपने सम्पूर्ण जीवन का दायित्व उसे सौंप देता है, जैसे- इस प्रकार के व्यक्ति महात्माओं के शिष्य बनकर उनके आदेशों व उपदेशों का पालन कर जीवन-यापन करते हैं। जब व्यक्ति कोई गलत कार्य या गलत (ग) औचित्य - स्थापना व्यवहार करता है और दूसरे व्यक्ति उस पर आरोप लगाते हैं, तब वह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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