________________
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
209
अनुपश्यी होता है और कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान का अनुपश्यी ही मन की चंचलता को क्षीण कर डालता है। एकाग्रता से किया गया कार्य सदैव सफल होता है। ध्यान की जितनी भी प्रक्रियाएं हैं, वे सब मन की एकाग्रता पर ही निर्भर हैं। जब तक मन की एकाग्रता नहीं होगी, ध्यान-साधना सफल नहीं होगी। वस्तुतः, मन की एकाग्रता के विकास के लिए ही ध्यान साधना के प्रयोग किए जाएँ, तो तनाव को उत्पन्न करने वाले कारक समाप्त हो जाते है। ठीक वैसे ही जैसे- "जो योगी आत्मा का ध्यान करता है, अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा बन जाता हैं, वह कर्मबन्ध को नष्ट कर देता है। 405
एकाग्रता के भी दो रूप होते हैं- एक वह, जो तनावमुक्त करती है और दूसरी वह, जो तनाव निर्मित करती है। जब व्यक्ति एक बिंदु पर एकाग्र हो जाता है, तब शेष संसार से संबंध तोड़ लेता है। इसके लिए उसे सिर्फ उस बिंदु पर एकाग्र होने का प्रयत्न करना होता है। यदि ऐसे प्रयत्न इच्छा, आकांक्षा या कामना से जुड़े होते हैं, तो वे तनाव उत्पन्न करते हैं, किन्तु यदि ये ही प्रयत्न या पुरुषार्थ ज्ञातादृष्टा-भाव में रहने के लिए होते हैं, तो वे तनावमुक्त करते हैं। चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न जब तक सहज रूप में नहीं होता, तब तक वह तनाव निर्मित करता है और यह तनाव भी मानसिक स्थिति को अस्त-व्यस्त करता है। इसे जैनदर्शन में आर्तध्यान और रौद्रध्यान कहा गया है। सहज एकाग्रता के अभाव में व्यक्ति न तो मन की चंचलता को शांत कर पाता है और न ही तनावमुक्त हो पाता है, क्योंकि उसके मन में सदैव . कुछ-न-कुछ पाने की चाह उत्पन्न होती रहती है। मन की चंचलता को शांत करने के लिए निष्कामभाव से एवं साक्षीभाव से जीवन जीने का अभ्यास करना चाहिए। ध्यान और ध्यान की साधना सिद्ध करने के लिए मन की एकाग्रता का होना आवश्यक है। तनावमुक्ति का भान भी स्थिर-चित्त ही करा सकता है। 'जैन साधना-पद्धति में ध्यान योग'406 में लिखा है- रागद्वेषात्मक-जीवों में अनुकूलता और प्रतिकूलता का कारण परिस्थिति नहीं, अपितु मन है और रागद्वेषात्मक-वृत्तियों के निरोध होते ही मन भी स्थिर हो जाता है। ऐसा स्थिर मन ही आत्मा के मोक्ष का कारण बन जाता है और अस्थिर मन आत्मभ्रान्ति उत्पन्न करता है।
405 समणसुत्तं - 494 406 जैन साधना पद्धति में ध्यानयोग, डॉ. साध्वी प्रियदर्शना, पृ. 274
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org