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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
हैं। इन विधियों के माध्यम से व्यक्ति की मनोदशा में कुछ परिवर्तन करने के लिए उसकी इच्छाशक्ति का विकास किया जाता है। वे विधियां निम्न हैं
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एकाग्रता
योजनाबद्ध-चिन्तन सकारात्मक सोच
3.
1. एकाग्रता जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम से शरीर की शक्ति में वृद्धि होती है, उसी प्रकार एकाग्रता का अभ्यास करने से मानसिकतनाव समाप्त करने में मन को शक्ति मिलती है। शक्तिशाली मन जीवन की कठिनाइयों से उत्पन्न तनावों का सामना करने एवं उनका निवारण करने में सफल होता है। मन विकल्पों में उलझा रहता है और उन विकल्पों का निरसन मन की एकाग्रता से ही संभव है। एकाग्रता का अर्थ है- एक समय में एक ही चिन्तन में लीन रहना, अर्थात् विकल्पों से मुक्त होने का अभ्यास करना । वस्तुतः, ध्यान की जितनी भी विधियां हैं, उनका एकमात्र लक्ष्य यही है कि मन की एकाग्रता हो। एकाग्रता ही व्यक्ति को वर्तमान क्षण में जीना सिखाती है। व्यक्ति या तो भविष्य की कल्पनाओं में खोया रहता है या फिर अतीत का स्मरण करता रहता है। भविष्य की कल्पनाओं के पूर्ण न होने पर, या उनकी पूर्ति में बाधाएं उत्पन्न होने पर मन तनावग्रस्त हो जाता है, यदि व्यक्ति भूतकाल के दुःखद क्षणों में खोया रहता है, तो वे क्षण उसके मन को अशांत एवं तनावग्रस्त बना देते हैं। कभी-कभी तो व्यक्ति अपने अतीत में इतना डूब जाता है कि वह अपना मानसिक संतुलन भी खो देता है । जैनदर्शन के अनुसार, एकाग्रता वर्त्तमान क्षण में रहने की विधि है, जो कि सफल और सुखी जीवन का एक आवश्यक गुण है। एक जैन कवि कहा है।
1.
404
2.
"गत वस्तु सोचे नहीं, आगत वांच्छा नाय वर्तमान में वर्त्ते सो ही, ज्ञानी जग माय ।"
आचारांगसूत्र में भगवान् महावीर ने भी कहा है- खणं ! जाहि से पण्डिए । 404 आचारांग में अन्यत्र यह भी लिखा है- "ज्ञानी अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते। कल्पना - मुक्त महर्षि ही
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आचारांगसूत्र - 1/3/3/60
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