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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
जाती हैं। सात्विक भोजन करने से शरीर पुष्ट और निरोग रहता है । ऐसे भोजन के उदाहरण हैं- पके हुए फल, दूध, सूखे मेवे आदि ।
सुरेशजी 'सरल' की कृति 'शाकाहार ही क्यों ?' में भी सात्विक एवं संतुलित भोजन को ही तनावमुक्ति का हेतु उल्लेखित किया है । उन्होंने कहा है – “जब मन में हीन भाव आने लगें, या मानसिक - असंतुलन और चिड़चिड़ाहट आने लगें, तब पुरुष हो या नारी - उसे सोचना चाहिये कि उसके आहार से उसे अपेक्षित विटामिन नहीं मिल पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में शुद्ध शाकाहारी, संतुलित एवं सात्विक भोजन करें। 401 जैन-धर्म के अनुसार, संतुलित भोजन करना ही हमारे स्वास्थ्य एवं मानस के लिए, यहां तक की हमारी चेतना के विकास के लिए उचित है। असंतुलित भोजन शरीर और मन दोनों में विकृति पैदा करता है और व्यक्ति को तनावयुक्त बनाता है, इसलिए भोजन के साथ-साथ भोजन के प्रकार, परिमाण एवं समय का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए, ताकि व्यक्ति तनावयुक्त रह सके ।
मानसिक-विधियां
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मन हमारे भीतर की वह शक्ति है, जिसकी सहायता से रागी भी वीतरागी बन सकता है। समग्र संकल्प, इच्छाएँ, कामनाएँ एवं राग-द्वेष की वृत्तियाँ मन में ही उत्पन्न होती हैं और मन में ही शांत होती हैं। मन सद्-असद् का विवेक करता है। मन में ही तनाव पैदा होता है और मन ही हमें तनाव से मुक्त कर सकता है, ठीक वैसे ही, जैसे लोहा ही लोहे को काटता है। मैत्राण्युपनिषद् में लिखा है कि मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है। 402 जैनदर्शन में भी बंधन और मुक्ति की दृष्टि से मन की अपार शक्ति मानी गई है। 403 मन की एक अवस्था है- चंचलता, तो मन की दूसरी अवस्था है- शांति । चंचलता एवं एकाग्रता चेतना की अवस्थाएं हैं। मन ही निराश होता है और मन ही आशान्वित होता है। मन ही अशांत होता है। अशांत मन में ही तनाव होते हैं और शांत मन तनावमुक्त होता है। मन ही हमें कमजोर बनाता है और मन ही शक्तिसम्पन्न बनाता है। अगर हम मन की सकारात्मक शक्ति को बढ़ा लें, तो मन ही 'अमन हो जाएगा। मन ही तनावग्रस्त करता है और मन ही तनावमुक्त करता है। तनावमुक्त मन के लिए निम्न मानसिक-विधियां
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401 शाकाहारी ही क्यों ? 402 मैत्राण्युपनिषद् - 4/11
403 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 482
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सुरेश 'सरल', पृ. 21
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