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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
तनावमुक्त मन आत्मा का वास्तविक प्रतिनिधि है और तनावयुक्त मन रागादि परिणति का कारण है।
एकाग्र होने की अलग से कोई विधि नहीं है। वस्तुतः, ध्यान करने की जितनी भी विधियां हैं, वे सभी मन के एकाग्र होने की विधियां हैं। मन की एकाग्रता का मात्र इतना ही लक्ष्य है कि हमारा पूरा चित्त उसी काम में होना चाहिए, जो काम हम वर्तमान क्षण में कर रहे हैं। अगर हम हँसते हैं, तो हमारा पूरा ध्यान हँसने में होना चाहिए। खुलकर हँसना चाहिए। हँसते रहो और मन को उसी हँसी का द्रष्टा बनाए रखो। उस वक्त सिर्फ हंसने से व्यक्ति तनाव से मुक्त हो जाता है, उस पल में सिवाय हँसने के कुछ याद नहीं रहता, किसी तनाव का एहसास नहीं होता। ऐसा करने से काम भी ठीक होगा, एकाग्रता भी बढ़ेगी तथा तनाव घटते-घटते व्यक्ति एक दिन निर्विकल्प-दशा को प्राप्त कर तनावमुक्त हो जाएगा। 2. योजनाबद्ध चिन्तन - तनाव के जन्म का मुख्य कारण असफलता से पीड़ित कुठाए होती हैं। असफलता का मूल कारण किसी भी समस्या के संदर्भ में योजनाबद्ध तरीके से चिन्तन नहीं करना है। तनावों से मुक्त होने के लिए योजनाबद्ध चिन्तन आवश्यक है। योजनाबद्ध चिन्तन का अर्थ है कि जो कार्य हमने अपने हाथ में लिया था, उसमें असफलता के मुख्य कारण क्या रहे हैं? असफलता के उन कारणों को सम्यक् प्रकार से समझकर आगे के लिए सुव्यस्थित और सुनियोजित कार्य-विधि अपनाना योजनाबद्ध चिन्तन है। इसमें किसी भी कार्य में सफलता को प्राप्त करने के लिए उसमें बाधक-साधक पक्षों का विचार करना होता है तथा यह समझना होता है कि बाधक-पक्षों का निराकरण कैसे होगा
और साधक-पक्षों का उपयोग कैसे होगा? इसे ही हम योजनाबद्ध चिन्तन कह सकते हैं। संक्षेप में, किसी योजना की असफलता के कारणों का निराकरण और उसकी सफलता के साधनों का सम्यक उपयोग ही उस योजना को सफल बनाता है। अव्यवस्थित चिन्तन में व्यक्ति वस्तुतः अपने अचेतन मन को नियंत्रित करने के बजाय उससे ही नियंत्रित होता है और सफलता के लिए यथार्थ को भूलकर काल्पनिक उड़ानें भरने लगता है। फलतः, अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में वह विफल हो जाता है। ये विफलताएँ कुंठा को जन्म देती हैं और कुंठा की अवस्था में व्यक्ति अव्यवस्थित रूप से व्यवहार करने लगता है। अतः, योजनाबद्ध चिन्तन का अर्थ है- चेतन मन को पूरी तरह सजग बनाकर
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