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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
अध्याय-1
विषय परिचय
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य और तनाव
वर्तमान युग की वैश्विक समस्याओं में सबसे मुख्य समस्या मानव मन के तनावग्रस्त होने की है। जैन-ग्रंथ आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति स्वयं तनावग्रस्त होता है, वह दूसरों को भी तनावग्रस्त बना देता है। इस प्रकार वैश्विक परिदृश्य आज तनावग्रस्त बना हुआ है। सरल शब्दों में कहा जाए, तो आज संसार का प्रत्येक व्यक्ति स्वयं तनावग्रस्त है एवं जो स्वयं तनावग्रस्त होता है, वह दूसरों को भी तनावग्रस्त बनाता है- 'आतुरा परिताति' । अतः, आज वैश्विक समस्याओं में तनावग्रस्तता एक मुख्य समस्या है। वर्तमान युग को हम वैज्ञानिक-युग कहते हैं, किन्तु सत्य यह है कि यह युग वैज्ञानिक युग कम, तनाव युग ज्यादा है। विश्व का प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह बालंक हो या वृद्ध, बड़ा हो या छोटा, सभी एक ही रोग से घिरे हुए हैं और वह रोग है- तनाव। आज हर इंसान तनावग्रस्त है। फलतः व्यक्ति जीता तो है, परन्तु जीवन में आनंद, सुख एवं शांति प्राप्त नहीं ‘कर पाता है। आज के इस दौर में मानव विविध प्रकार के तनावों से ग्रस्त है। जैनधर्म के अनुसार तनाव के मुख्य कारण हैं-व्यक्ति की अतृप्त इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, कामनाएँ आदि। ये इच्छाएँ आकाश के समान अनन्त हैं और उनकी पूर्ति नहीं होने पर व्यक्ति दुःखी होता है। व्यक्ति हमेशा अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने का येन-केन-प्रकारेण प्रयास करता रहता है, कामनाओं की पूर्ति होने पर व्यक्ति सुख का अनुभव करता है तथा पूर्ति न होने पर दुःखी होता है और यही दुःख उसके मन
आचारांग, 1/1/6 उत्तराध्ययनसूत्र, 9/48
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