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________________ ... जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति को तनावग्रस्त बना देता है। इस तनावग्रस्तता को समाप्त करने के लिए कहीं-न-कहीं व्यक्ति को अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा। वस्तुतः, यदि मानव को तनावमुक्त बनाना है, तो हमें तनाव के कारणों का विश्लेषण कर उन्हें समाप्त करना होगा, अर्थात् उन कारणों की खोज कर उनका निराकरण करना होगा, जो संसार के व्यक्तियों में तनाव उत्पन्न करते हैं। विश्व की सबसे गम्भीर और प्रथम समस्या तनाव की ही है और इन तनावों को दूर करने के लिए विश्व की अन्य सभी समस्याओं के मूल कारणों को समझना होगा। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार “विश्व की दूसरी प्रमुख समस्या मानव जाति के अस्तित्व की है। वे लिखते हैं- "Due to the tremendous advancement in war technology and nuclear weapons, the whole human race is standing on the verge of annihilation".* सूत्रकृतांग में यह स्पष्ट लिखा है कि व्यक्ति की सुरक्षा ही सर्वोपरि है और यह सुरक्षा उसे अभय प्रदान करके ही दी जा सकती है। आज विश्व इसी समस्या का सामना कर रहा है कि वह खुद के अस्तित्व को कैसे सुरक्षित रखे? इसका कारण है- वैज्ञानिक युग की उभरती युद्ध की नई तकनीक और आण्विक-शस्त्र। विश्व का प्रत्येक . व्यक्ति आज अपनी सुरक्षा के लिए शस्त्रों पर अधिक विश्वास करता है। आज व्यक्ति का व्यक्ति पर भरोसा खत्म होता जा रहा है। प्रत्येक राष्ट्र या प्रत्येक व्यक्ति में जब एक दूसरे के प्रति विश्वास और सहयोग की भावना खत्म हो जाती है, तो वहाँ द्वन्द्व अपना स्थान बना लेता है। यह द्वन्द्व ही वह कारण है, जो व्यक्ति में डर या भय उत्पन्न करता है और जहाँ डर या भय होता है, वहाँ तनाव होता ही है। डॉ. सुरेन्द्र वर्मा ने अपने लेख में लिखा है कि भय भी तनाव की अनुभूति का एक कारण है। व्यक्ति अपने भय को समाप्त करने के लिए शस्त्रों पर विश्वास करता है और वर्तमान युग की शस्त्रीकरण की यह भावना पूरे विश्व को तनावग्रस्त बना रही है। जैन धर्म के अनुसार, तनाव-मुक्ति के लिए उत्तराध्ययन सूत्र में लिखा है - "यदि अभय चाहते हो, तो अभय प्रदान करो।" from Jain Peace, religious Harmony and solution of world problem Perspective. Sagarmalji Jain, Page 25 सुत्रकृतांग - मधुकर मुनि, 1/6/23 समता-सौरभ - जुलाई - सितम्बर 1996, पृ. 43 उत्तराध्ययनसूत्र - 6/6 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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