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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 205 गया है और यह वर्णित किया गया है कि- “साधना की इस सातवीं कक्षा तक आकर गृहस्थ उपासक अपने वैयक्तिक-जीवन की दृष्टि से अपनी वासनाओं एवं आवश्यकताओं का पर्याप्त रूप से परिसीमन कर लेता है।"396 भोजन करने में मनुष्य का उद्देश्य मात्र पेट भरना, स्वास्थ्य-प्राप्ति या स्वाद की पूर्ति ही नहीं है, अपितु मानसिक व चारित्रिक-विकास करना भी है। आहार का हमारे आचार, विचार एवं व्यवहार से गहरा संबंध है। आहार का हमारे मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है, अतः मनोनिग्रह के लिए आहार का संतुलित होना आवश्यक है। __उदाहरण के लिए, जो लोग मांसाहारी भोजन करते हैं, उनमें करुणा, दया की भावना बहुत कम होती है। मनुष्य की भावना ही उसके कों को प्रभावित करती है। "मांसाहार से मस्तिष्क की सहनशीलता की शक्ति व स्थिरता का हास होता है, वासना व उत्तेजना बढ़ाने वाली प्रवृत्ति पनपती है, क्रूरता एवं निर्दयता बढ़ती है।" 397 मांसाहार द्वारा कोमल भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थपरता, निर्दयता आदि भावनाओं का पनपना ही आज विश्व में बढ़ते हुए तनाव का मुख्य कारण है। . किसी बालक को शुरू से ही मांसाहार कराया जाता है, तो वह उसे सहज भाव से ग्रहण नहीं कर पाता है, उस वक्त उसके अन्दर जो दया-भाव है, उसे वह मारता है, किन्तु इसका उसे पता भी नहीं चलता है। बड़े होते-होते उसके अंदर से दया, करुणा एवं प्रेम की भावना समाप्त हो जाती है और उसके हदय में अपने स्वार्थ के लिए हिंसा, घृणा, क्रूरता आ जाती है। मांसाहार वासनाओं को वैसे ही भड़काता है, जैसे आग में घी डालने पर आग और भड़क जाती है। वासनाएँ जब पूरी नहीं होती हैं, या उनकी तृप्ति में बाधा आती है, तो क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध में सही-गलत का विवेक समाप्त हो जाता है और जहां विवेक नहीं होता, वहां मानवीय-गुणों का विनाश अपनी जगह बना लेता है। मांसभक्षण हर धर्म में निषिद्ध है। हर धर्म के शास्त्र, चाहे हिन्दुओं के हों, या मुसलमानों के, जैनों के हों, या बौद्धों के, मांसाहार को केवल स्वास्थ्य के असंतुलन का ही नहीं, वरन् मानसिक असंतुलन का भी 396 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. सागरमल जैन, पृ.321 97 शाकाहार या मांसाहार - फैसला आपका, गोपीनाथ अग्रवाल, पृ. 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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