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________________ 204 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति . संकल्प-विकल्प भी थम जाते हैं, वैचारिक स्थिरता आती है, जो तनाव-मुक्ति का आधार है। भोजन-संबंधी विधियाँ - - बहुत पुरानी कहावत है- 'जैसा खाए अन्न, वैसा होवे मन'। आहार मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकता है। आहार भी मनुष्य के तनाव को दूर करने में सहायक होता है, साथ ही, वह उसके व्यक्तित्व का निर्माण भी करता है। संतुलित आहार के अभाव में जहाँ एक ओर लाखों लोग भूख से मरते हैं, वहीं दूसरी ओर, आवश्यकता से अधिक खाकर लाखों लोग मरते हैं। एक ओर, आहार के अभाव भूख की वेदना से तनाव उत्पन्न होते हैं, तो वहीं दूसरी ओर, आहार की लालसा यां स्वाद-लोलुपता भी तनाव उत्पन्न करती है। तामसिक-आहार से शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं मानसिक-असंतुलन का एक कारण असंतुलित आहार भी है। आचार्य महाप्रज्ञजी अपनी पुस्तक 'चित्त और मन में यहाँ तक लिखते हैं'असंतुलित भोजन के कारण भी आदमी पागल बन जाता है। जब भोजन संतुलित होता है, तो मस्तिष्क भी ठीक से काम करता हैं, उसका भी संतुलन बना रहता है, किन्तु असंतुलित भोजन व्यक्ति के स्वभाव को चिड़चिड़ा व क्रोधी बना देता है। जैनधर्म के शास्त्रों में संतुलित भोजन को उचित आहार व असंतुलित भोजन को अनुचित आहार कहा गया है। उचित आहार को ग्रहण करके और अनुचित आहार का त्याग करके व्यक्ति अपनी भोगासक्ति पर विजय प्राप्त कर लेता है। कहते हैं -सभी कार्यों में वायुकाय की हिंसा से विरत होना कठिन है, सभी कर्मों में मोहनीय-कर्म पर विजय पाना कठिन है और पाँचों इन्द्रियों में रसनेन्द्रिय को वश में करना कठिन है। वस्तुतः, जिसने इस रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली, वह व्यक्ति मानसिक-शांति की उस अवस्था को प्राप्त कर लेता है, जिसे जैनधर्म में मोक्ष कहते हैं। जैन-विचारणा मे गृही-जीवन में आध्यात्मिक-साधना के विकास की उच्चतम अवस्था को अर्थात् मोक्ष को पाने के लिए जिन प्रतिमाओं का वर्णन किया है, उन्हें श्रावक प्रतिमा कहते हैं। इन ग्यारह प्रतिमाओं में सातवीं प्रतिमा अनुचित आहार-विहार से संबंधित है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक • अध्ययन में इन प्रतिमाओं को श्रावक-जीवन की विभिन्न कक्षाएं कहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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