SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति अनुप्रेक्षा के साथ मन-मस्तिष्क को जोड़ना या योग करना ही अशरण की अनुप्रेक्षा की योग-साधना है। तनाव उत्पन्न करने के सहायक तत्व धन, पदार्थ और परिवार हैं। ये सब हमारे अस्तित्व से भिन्न हैं, इसका ज्ञान अनुप्रेक्षा से होता है। दूसरे शब्दों में, 'पर' को 'पर' समझने का ज्ञान इसी अनुप्रेक्षा से होता है। अपनी सुरक्षा अपने अस्तित्व में है । अशरण की अनुप्रेक्षा राग-त्याग की साधना है। राग-द्वेष से परे व्यक्ति तनावमुक्त जीवन व्यतीत करता है । 3. संसार – अनुप्रेक्षा यह संसार जन्म-मरण का चक्र है। जब तक जन्म-मरण चलता रहेगा, व्यक्ति तनावग्रस्त होता रहेगा । व्यक्ति की संसार के प्रति आसक्ति ही तनाव का कारण है। वह संसार के दुःखों को सहन तो करता है, पर उन दुःखों की जड़ को समाप्त करने का विचार नहीं करता। संसार - अनुप्रेक्षा में साधक संसार के दुःखों, जन्म - जरा - मरण की पीड़ाओं और चारों गतियों के कष्ट पर विचार करता है। वह तनाव बनाने वाले इस संसार से मुक्त होकर मोक्ष की अभिलाषा करता है। यह सम्पूर्ण संसार और संसार के प्राणी एकांत दुःख से दुःखी हैं, कहीं भी सुख का लेश नहीं है 387 इस पर भी विचार करता हैं। यह संसार ही तनावग्रस्त होने का कारण है और तनावमुक्त अवस्था ही मोक्ष है। भगवान महावीर के शब्दों में- "पास लोए महब्मयं, अर्थात् तू संसार को महाभयानक रूप में देख | 388 — - इस प्रकार अनुचिन्तन करने से व्यक्ति में तनावों से मुक्ति और संसार से मुक्ति पाने की प्रबल इच्छा जाग उठती है और वह मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यक् प्रयत्न करता है । 387 सूत्रकृतांग - 17/11 388 आचारांगसूत्र 6/1 199 4. एकत्व – अनुप्रेक्षा एकत्व से तात्पर्य है- भीड़ में भी अकेला होना, अर्थात् यह धारणा कि मैं अकेला आया था और अकेला ही जाऊँगा, शेष सब संयोगजन्य हैं। जैन-धर्म का यह मानना है कि तनाव का मूल कारण राग-द्वेष हैं और ये दोनों ही 'पर' के कारण होते हैं। एकत्व - अनुप्रेक्षा में 'पर' को 'पर' समझा जाता है और साधक की दृष्टि आत्मकेन्द्रित हो जाती है इस अनुप्रेक्षा में जो वस्तुएं बाहरी है, उनसे साधक के चित्त में विरक्ति हो ही जाती है, वह अपने मनोभावों को भी अपना नहीं मानता, सिर्फ अपने आत्मिक - गुणों को ही अपना मानता है । Jain Education International - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy