________________
198
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
7. आस्रव-अनुप्रेक्षा 8. संवर–अनुप्रेक्षा 9. निर्जरा-अनुप्रेक्षा 10. लोक-अनप्रेक्षा 11. बोधिदुर्लभ-अनुप्रेक्षा 12. धर्म-अनुप्रेक्षा
इन बारह में से प्रथम चार अनुप्रेक्षाओं का वर्णन ठाणांगसूत्र में भी मिलता है। ठाणांग में धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कही गई है, यथा - एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा । 2014 1. अनित्यानुप्रेक्षा - शरीर की अनित्यता और मृत्यु की अनिवार्यता बताते हुए भगवान् महावीर ने आचारांग में लिखा है -"यह शरीर अनित्य और अशाश्वत है। इसका चय-अपचय होता रहता है, इसका स्वभाव ही विनाश और विध्वंस है। 285
व्यक्ति जब शारीरिक इच्छाओं की पर्ति नहीं कर पाता है, तो उसका मन विचलित हो जाता है। सभी कामनाएँ शारीरिक ही होती हैं। शारीरिक-कामनाएँ ही तनाव-उत्पत्ति का कारण हैं। अनुप्रेक्षा द्वारा शरीर की अनित्यता को जाना जाता है, इससे उसके प्रति ममत्व कम हो जाता है। अनुप्रेक्षा से यह ज्ञात होता है कि यह शरीर मरणशील है। आचारांग में कहा गया है -"यह शरीर क्षण-प्रतिक्षण मृत्यु की ओर जा रहा
है।"
शरीर के यर्थाथ स्वरूप को जानने वाला शरीर के प्रति आसक्ति का त्याग कर देता है और जहां आसक्ति का त्याग होता है, वहां तनाव का भी त्याग हो जाता है। 2. अशरण-अनप्रेक्षा - व्यक्ति की यह कमजोरी है कि वह दूसरों पर निर्भर होता है, दूसरे की शरण में स्वयं को सुरक्षित समझता है, किन्तु यह उसकी मिथ्या धारणा है, जो उसे तनावग्रस्त बना देती है। अशरणअनुप्रेक्षा का मूल मर्म है- स्वयं की शरण में आना। मेरा कोई रक्षक नहीं है, मेरा कोई शरण-प्रदाता नहीं है, कोई मेरा नाथ (स्वामी) नहीं है- इस
385
384. ठाणागसूत्र-4/1/247
आचारांगसूत्र - 5/2/509 386. आचारांगसूत्र - 2/2/239
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org