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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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चाहिए। आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी कहा है- "ध्यान से स्नायविक-तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव समाप्त हो जाते हैं।"12
शरीर-दर्शन के अनेक दृष्टिकोण हैं। एक कामुक व्यक्ति शरीर को देखता है, उसके रंग, रूप व आकार को देखता है। एक डॉक्टर भी शरीर को देखता है, उसका भी अपना दृष्टिकोण है, किन्तु तनावमुक्ति के लिए शरीर को साधना की दृष्टि से देखना होता है। .
आचारांगसत्र में भगवान महावीर ने कहा है -"जो आत्मज्ञानी है वह लोक अर्थात् शरीर के निचले भाग को जानता है, मध्य भाग को जानता है और ऊपरी भाग को जानता है। हमारे शरीर के भी तीन भाग हैं -
1. ऊर्ध्वभाग़ 2. मध्यभाग और 3. अधोभाग।
नाभि शरीर का मध्यभाग है। नाभि के ऊपर का हिस्सा है-- उर्ध्वलोक और नाभि के नीचे का हिस्सा है- अधोलोक। तनावमुक्त होने के लिए शरीर की रचना को चैतन्य-केन्द्रों की दृष्टि से देखना चाहिए, जहाँ हमारे चेतना या ज्ञान के केन्द्र हैं। अपनी चेतना को शरीर में नीचे से ऊपर की ओर ले जाना शरीर-प्रेक्षा है।
इस प्रकार, शरीर-दर्शन से शरीर के प्रति आसक्ति समाप्त होती है। जब शरीर से ममत्व हटेगा, तो तनाव पैदा ही नहीं होंगे। ..
. शरीरप्रेक्षा की यह प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है और अन्तर्मुखी व्यक्ति ही आत्मोन्मुख होता है तथा आत्मोन्मुखी तनावमुक्त होता है। चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा -
- शरीर के प्रमुख तंत्रों में से एक तंत्र है - अन्तःस्रावी-ग्रंथितंत्र । इन ग्रन्थियों से निकलने वाले स्राव को जीवनरस या हार्मोन कहते हैं। ये हार्मोन हमारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक प्रवृत्तियों का नियंत्रण करते हैं। व्यवहार और हमारी अभिव्यक्ति नाड़ी-तंत्र के द्वारा होती है, किन्तु आदतों का जन्म, आदतों की उत्पत्ति ग्रन्थि-तंत्र द्वारा होती है। "मनुष्य की जितनी आदतें बनती हैं, उनका मूल जन्म-स्थल
372 प्रेक्षाध्यान:- शरीर प्रेक्षा, पृ. 29 373. आचारांगसूत्र, अमोलक ऋषि, 2/5/9
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