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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति 193 चाहिए। आचार्य महाप्रज्ञजी ने भी कहा है- "ध्यान से स्नायविक-तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव समाप्त हो जाते हैं।"12 शरीर-दर्शन के अनेक दृष्टिकोण हैं। एक कामुक व्यक्ति शरीर को देखता है, उसके रंग, रूप व आकार को देखता है। एक डॉक्टर भी शरीर को देखता है, उसका भी अपना दृष्टिकोण है, किन्तु तनावमुक्ति के लिए शरीर को साधना की दृष्टि से देखना होता है। . आचारांगसत्र में भगवान महावीर ने कहा है -"जो आत्मज्ञानी है वह लोक अर्थात् शरीर के निचले भाग को जानता है, मध्य भाग को जानता है और ऊपरी भाग को जानता है। हमारे शरीर के भी तीन भाग हैं - 1. ऊर्ध्वभाग़ 2. मध्यभाग और 3. अधोभाग। नाभि शरीर का मध्यभाग है। नाभि के ऊपर का हिस्सा है-- उर्ध्वलोक और नाभि के नीचे का हिस्सा है- अधोलोक। तनावमुक्त होने के लिए शरीर की रचना को चैतन्य-केन्द्रों की दृष्टि से देखना चाहिए, जहाँ हमारे चेतना या ज्ञान के केन्द्र हैं। अपनी चेतना को शरीर में नीचे से ऊपर की ओर ले जाना शरीर-प्रेक्षा है। इस प्रकार, शरीर-दर्शन से शरीर के प्रति आसक्ति समाप्त होती है। जब शरीर से ममत्व हटेगा, तो तनाव पैदा ही नहीं होंगे। .. . शरीरप्रेक्षा की यह प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है और अन्तर्मुखी व्यक्ति ही आत्मोन्मुख होता है तथा आत्मोन्मुखी तनावमुक्त होता है। चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा - - शरीर के प्रमुख तंत्रों में से एक तंत्र है - अन्तःस्रावी-ग्रंथितंत्र । इन ग्रन्थियों से निकलने वाले स्राव को जीवनरस या हार्मोन कहते हैं। ये हार्मोन हमारी शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक प्रवृत्तियों का नियंत्रण करते हैं। व्यवहार और हमारी अभिव्यक्ति नाड़ी-तंत्र के द्वारा होती है, किन्तु आदतों का जन्म, आदतों की उत्पत्ति ग्रन्थि-तंत्र द्वारा होती है। "मनुष्य की जितनी आदतें बनती हैं, उनका मूल जन्म-स्थल 372 प्रेक्षाध्यान:- शरीर प्रेक्षा, पृ. 29 373. आचारांगसूत्र, अमोलक ऋषि, 2/5/9 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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