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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
ही तनावमुक्ति है । केवल मन को साधने से सब सिद्ध हो जाता है । मन चिड़िया की तरह है, उसे जब भी पकड़ने का प्रयास करेंगे, हाथ से उड़ जाएगा, किन्तु मन को पकड़ पाना नामुमकिन भी नहीं है, क्योंकि आत्मा के सजग होते ही यह पकड़ में आ जाता है।
श्वास का प्राण से और प्राण का मन से गहरा संबंध है । मन को सीधा नहीं पकड़ सकते हैं, प्राण-धारा को भी सीधा नहीं पकड़ सकते हैं, इसलिए मन को पकड़ने के लिए, शान्त करने के लिए, श्वास का संयम आवश्यक है। श्वास- प्रेक्षा में श्वास के प्रति सजग चित्त की एकाग्रता श्वास - संयम को प्रकट करती है, जिससे मन की शांति के साथ-साथ कषाय भी उपशांत और चैतन्य का जागरण होता है 366 श्वास के प्रति सजग भाव की क्रिया ही श्वास-प्रेक्षा है। श्वासस- प्रेक्षा के दो प्रयोग है
1. दीर्घश्वासप्रेक्षा और 2. समवृत्तिश्वासप्रेक्षा ।
दीर्घश्वासप्रेक्षा
इसमें श्वास की गति को मन्द करें। धीरे-धीरे लम्बा श्वास लें और धीरे-धीरे छोड़ें। श्वास को लयबद्ध और समतल करें। यह दीर्घश्वासप्रेक्षा है।
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समवृत्ति - श्वास- प्रेक्षा
इस प्रक्रिया में बाएं नथुने से श्वास लें, दाएं से निकालें, फिर दाएं नथुने से श्वास लेकर बाएं से निकालें ।'' यह समवृत्तिश्वासप्रेक्षा
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है ।
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'महावीर का स्वास्थ्यशास्त्र' नामक पुस्तक में आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है - "भगवान् महावीर नासाग्र पर ध्यान करते थे । “ इसका अर्थ यही है कि वे भी श्वास-प्रश्वास देखते थे। हमारे चित्त को नासाग्र के भाग पर स्थिर कर श्वास- प्रेक्षा करने से मन किसी अन्य प्रवृत्तियों में नहीं जाएगा। श्वास का अनुभव करें, वहीं स्मृति रहे, तो मन शांत रहेगा । श्वास- प्रेक्षा से तनाव उत्पन्न करने वाले कषाय शांत होते हैं, उत्तेजनाएँ और वासनाएँ शांत होती हैं। व्यक्ति की यह मानसिक-शांति
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366 प्रेक्षा एक परिचय, मुनि किशनलाल, पृ. 13 प्रेक्षाध्यान प्रयोग पद्धति, आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 13 महावीर का स्वास्थ्य शास्त्र, आचार्य महापन ए71
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