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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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द्वारा मन को देखो, स्थूल चेतना के द्वारा सूक्ष्म चेतना को देखो- यही 'देखना' ध्यान का मूल तत्त्व है।
जानना और देखना चेतना के लक्षण है। भगवान महावीर ने साधना के जो सूत्र दिए हैं, उनमें जानों और देखों, ये ही मुख्य हैं। तनावमुक्ति के लिए ये महत्वपूर्ण सूत्र है। देखने की यह प्रक्रिया शरीर से प्रारम्भ होकर सूक्ष्म मन या आत्मचेतना तक जाती है और इससे होने वाली अनुभूति व्यक्ति को तनाव के मूल कारणों तक ले जाती है, तब ही वह तनावों के कार्य-कारणरूप चक्रव्यूह को तोड़ने में सफल होता है।
आचारांग में कहा भी है31- जो क्रोध को देखता है, वह मान को देखता है। जो मान को देखता है। वह माया को देखता है। जो माया को देखता है, वह लोभ को देखता है। जो लोभ को देखता है, वह प्रिय देखता है। जो प्रिय (राग) को देखता है, वह अप्रिय को देखता है। जो अप्रिय (द्वेष) को देखता है, वह मोह को देखता है। जो मोह को देखता है, वह गर्भ को देखता है। जो गर्भ को देखता है, वह जन्म को देखता है। जो जन्म को देखता है, वह मृत्यु को देखता है। जो मृत्यु को देखता है, वह दुःख को देखता है और जो दुःख को देखता है, वह क्रोध से लेकर दुःख-पर्यन्त होने वाले इस चक्रव्यूह को तोड़ देता है। इस चक्रव्यूह को तोड़ने वाला व्यक्ति पूर्णतः तनावमुक्त स्थिति को प्राप्त करता है। भगवान् महावीर ने आचारांगसूत्र में कई बार यह कहा है कि मन में लज्जा के भाव से अपनी वृत्तियों को पृथक् करके देख।
जब हम देखते हैं, तब सोचते नहीं और जब सोचते हैं, तब देखते नहीं हैं। 'इच्छाएँ कामनाएँ उठती हैं, तो उन्हें मात्र देखने का प्रयास करो, उनसे जुड़ों मत। क्रोध आएगा, तो उसी क्षण देखो कि क्रोध आ रहा है। स्थिर होकर अपने भीतर देखो, अपने विचारों को, शरीर में होने वाले प्रकम्पनों को देखो। जो भीतर की गहराइयों को देखते-देखते भीतर के सत्य को देख लेता है, उसका दृष्टिकोण ही बदल जाता है। वह सम्यग्दृष्टि वाला हो जाता है और जो सम्यग्दृष्टि वाले होते हैं, वे तनावमुक्त जीवन जीते है।
तनावमुक्त जीवन का अर्थ है - मन और शरीर की एक दिशा होना। इसे हम एकाग्रता कह सकते हैं। एकाग्रता तब होती है, जब मन
361. आचारांग सूत्र-3/4/167 362. आचारांग, प्रथम अध्याय
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