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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
1. शरीर शुद्धि की क्रियाएँ, 2. योगासन और व्यायाम, 3. प्राणायाम, 4. प्रेक्षाध्यान और 5. कायोत्सर्ग ।
1. शरीर शुद्धि की क्रियाएँ - शरीर शुद्धि की क्रियाएँ योग का एक अंग हैं। इसके अन्तर्गत नेति, कुंजल, त्राटक, कपाल भाति, वस्ति और धौति आती हैं। ये समस्त क्रियाएं विशेष रूप से शरीर के अंगों की अशुद्धियों को दूर करने के लिए की जाती हैं। शरीर की अशुद्धियाँ दूर होने के बाद प्राण सम्पूर्ण शरीर में स्वतंत्रतापूर्वक गति करने लगता है और मन शांत तथा संतुलित हो जाता है, क्योंकि उसका प्राण के साथ गहन संबंध है । प्राण के असंतुलन में व्यक्ति तनावग्रस्त होता है। यदि प्राण पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके, तो मनोनिग्रह जैसा कठिन कार्य सरल बन जोयगा । 'हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है :
पवनो बध्यते येन मनस्तेनैव बध्यते । मनश्च बध्यते येन पवनस्तेन बध्यते ।।
हेतु द्वयं तु चित्तस्य वासना च समीरणः । तयर्विनष्ट एकस्मिंस्तौ द्वावपि विनश्यतः । । 336
अर्थात्, जिसने प्राणवायु को जीता, उसने मन को जीत लिया। जिसने मन को जीता, उसने प्राणवायु को जीत लिया। चित्त की चंचलता के दो ही कारण हैं- एक, वासना और दूसरा, प्राणवायु का चंचल होना। इनमें से एक के समाप्त होने पर दूसरा स्वयं ही समाप्त हो जाता है । :
योगासन एवं व्यायाम
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मन तनावों की जन्मस्थली है, अतः चित्तवृत्ति - निरोध का अर्थ है - होकर मन की चंचलता अर्थात् तनावग्रस्त दशा को समाप्त करना, अर्थात् मन में निरन्तर उठने वाले विचारों, आवेगों, विषय-वासनाओं संबंधी संकल्प - विकल्पों से मुक्त होकर तनावमुक्त जीवन जीना ।
हठयोग प्रदीपिका - 4/21
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मुख्य रूप से योग का लक्ष्य है- शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक - तनावों को दूर करना। कहते हैं कि पहला सुख निरोगी काया, क्योंकि यदि शरीर स्वस्थ नही रहे, तो चित्त भी शान्त नहीं हो सकता है और अशान्त चित्त से व्यक्ति ध्यान भी नहीं कर सकता है।
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