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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
जिस प्रकार मोह को कर्मबंध का मूल कारण कहा गया है, उसी प्रकार तनाव को भी रोगों का मूल कारण. कहा गया है। मानसिक तनाव ही शारीरिक तनाव उत्पन्न करता है। श्री ललितप्रभसागरजी ने भी अपनी पुस्तक 'चिंता, क्रोध और तनाव-मुक्ति के सरल उपाय' में लिखा है कि विश्व के कई चिकित्सकों ने मन और शरीर के रोगों पर काफी गहरा अनुसंधान किया है। एक बात साफ तौर पर सिद्ध हो गई है कि भय, निराशा, चिंता, ईर्ष्या, बुरे विचार और इनसे पैदा हुई बुरी तरंगें पेट और आँतों के रोगों को जन्म देती हैं, वहीं अच्छे विचार हमारे शरीर को . शक्ति प्रदान करते हैं। 35
जैसा कि पहले कहा गया है कि मन और तन का इलाज अलग-अलग नहीं किया जा सकता हैं। तन की स्वस्थता से मन की स्वस्थता तक और मन की स्वस्थता से तन की स्वस्थता तक जाया जा सकता है। कुछ लोग नये साधकों को मन को वश में करने के लिए विभिन्न प्रकारों की ध्यान-प्रक्रियाओं को अपनाने की सलाह देते हैं, लेकिन जिन लोगों का मन बहुत अधिक चंचल और व्याकुल होता है, उन्हें ध्यान की ये प्रक्रियाएँ बहुत कठिन लगती हैं, क्योंकि वे लोग अपने. मन को एक क्षण के लिए भी शांत रखने की सामर्थ्य नहीं रखते हैं। यही कारण है कि ऐसे व्यक्तियों को चाहिए कि वे उन शारीरिक विधियों को अपनाते हुए मन को नियंत्रित करने का प्रयत्न करें, जिनमें विचारों की प्रक्रियाओं को पूरी तरह बंद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती और केवल साधारण एकाग्रता लानी होती है।
तनाव-प्रबंधन की शारीरिक-विधियाँ इस सिद्धांत पर आधारित है कि तन और मन-दोनों परस्पर घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं और एक बार आप अपने शरीर को नियंत्रित कर लें, तो मन भी नियंत्रण में आ जाता है और जब मन नियंत्रण में होगा, तो व्यक्ति तनावरहित और आनंद से परिपूर्ण होगा। यदि हम शरीर को नियंत्रित कर लें, या शरीर के प्रति सजग हो जाएं, तो मन भी नियंत्रण में आ जाता है और जब मन नियंत्रण में आ जाएगा, तो व्यक्ति आनंदयुक्त अर्थात् तनावरहित होगा।
. तन और मन को तनावरहित करने की निम्न शारीरिक-विधियाँ प्रस्तुत की गई हैं -
335. चिंता, क्रोध और तनाव मुक्ति के सरल उपाय, पृ.12
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