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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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अ. प्रत्यक्ष विधियाँ, ब. अप्रत्यक्ष विधियाँ । 1. शारीरिक-विधियाँ -
तनाव-प्रबंधन के लिए शारीरिक विधियाँ, क्यों और कैसे प्रभावी होती हैं? इसे जानने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि तनाव और शरीर का संबंध क्या है ?
प्रस्तुत अध्याय में हमारा विवेच्य विषय है- तनाव-प्रबंधन। तनाव-प्रबंधन के लिए शरीर, आहार, श्वासोच्छवास और मन को साधना बहुत जरूरी है। उन्हें साधे बिना तनाव-प्रबंधन सम्भव नहीं है। तनाव-प्रबंधन का मुख्य लक्ष्य होता है- आत्मा, शरीर एवं मन को अपनी स्वाभाविक-दशा में लाना। उन्हें वैभाविक स्थिति से स्वाभाविक-स्थिति में लाना। मनुष्य के लिए शरीर एक उपहार है। हम शरीर को अपनी स्वाभाविक-दशा में रखकर तनावों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। स्वस्थता ही शरीर का स्वभाव है, वह एक आंतरिक व्यवस्था है, जो स्वशासित है। रोग शरीर में बाहर से आते हैं। वे शरीर की विभावदशा या विकृति के सूचक हैं और यह विभावदशा दैहिक तनावों को उत्पन्न करती है। तन और मन स्वस्थ रहें, अर्थात् अपने में रहे तो व्यक्ति तनावमुक्त रहेगा। स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन, तनाव-मुक्ति की प्राथमिक शर्त हैं।
. मन की विकृति शरीर पर और शारीरिक-विकृति मन को प्रभावित करती है, फिर भी शारीरिक स्वास्थ्य की अपेक्षा हमें मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देना होगी, क्योंकि शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए मानसिक रूप से स्वस्थ रहना भी बहुत जरूरी है। मानसिक-स्वस्थता तभी होगी, जब मन तनावमुक्त होगा। तनाव सबसे भयानक रोग है। तनाव लू की तरह है, जैसे तेज गर्म हवाएं हमारे शरीर के जल को सोख लेती हैं, वैसे ही तनाव भी हमारी मानसिक-शान्ति का हरण कर लेता है। आज संसार में जितनी भी बीमारियाँ हैं, उनमें अधिकांश का कारण मनुष्य के मन में पलने वाली चिन्ता, आवेग एवं तनाव ही हैं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए मन का स्वस्थ होना जरूरी है और मन को स्वस्थ रखने के लिए उसका प्रसन्न और तनावमुक्त होना आवश्यक है। "मन को स्वस्थ किये बगैर जब भी तन
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