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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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अध्याय-5 तनाव-प्रबंधन की विधियाँ
"मन संसार की सबसे शक्तिशाली वस्त है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया है, वह संसार की किसी भी चीज को नियंत्रित कर सकता है।" - स्वामी शिवानंद
मन हमारी वह शक्ति है- जिसके द्वारा हम अपने प्रति जागरूक हो सकते हैं, अपने वैभाविक स्वरूप एवं स्वाभाविक-स्वरूप का बोध कर सकते हैं। जब मन प्रशांत होता है, अन्तर्मुखी होता है, तब हम शांति या आनंद का अनुभव करते हैं। किन्तु यदि मन बहिर्मुख, अनियंत्रित एवं असंतुलित होता है, तो हम तनावग्रस्त हो जाते हैं, द्वन्द्व में, अर्थात् दो पक्षों के बीच अनिश्चय में उलझे रहते हैं। यह द्वन्द्व की अवस्था मनुष्य को तनावग्रस्त बनाती है, जैसे- राग-द्वेष, पसन्द- नापसन्द, प्रेम-घृणा, क्रोध-शांति, सुख-दुःख, ईर्ष्या-सौमनस्य आदि।
किसी ने कहा है- “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।" भारतीय-चिंतकों ने कहा है- हमारे बंधन का कारण भी हमारा मन है और हमारी मुक्ति का हेतु भी मन है। जीवन का सारा खेल मन की इच्छा शक्ति पर निर्भर है। मन ही प्रेरक है, मन ही प्रेरणा है। मन सर्जक भी है और विध्वंसक भी। जैसा कि पहले बताया गया है, तनाव का जन्म मन में ही होता है, तब अगर मन को ही साध लिया जाए, तो तनाव का जन्म ही नहीं होगा और यदि तनाव का जन्म नहीं होगा, तो उससे मुक्ति का प्रश्न ही नहीं उठेगा। अतः, भारतीय-धों की दृष्टि से मन की साधना ही तनाव-प्रबंधन का मुख्य आधार है।
उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर कहते हैं कि मन के संयमन से एकाग्रता आती है, जिससे ज्ञान प्रकट होता है। इससे अज्ञान की समाप्ति और सत्य दृष्टिकोण की उपलब्धि होती है। तनावमुक्ति के लिए अनिवार्य शर्त है-मनःशुद्धि । बौद्धदर्शन में भी कहा गया है- “जो सदोष
327. उत्तराध्ययन, 29/57
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