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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
बना रहता है। इस मनोदशा में तनाव उत्पन्न करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ, क्रूरता, दुष्ट प्रवृत्ति आदि कारक बहुत कम होते हैं। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं- "इस मनोदशा में क्रोध, मान, माया, लोभ-रूप अशुभ मनोवृत्तियाँ अतीव अल्प, अर्थात् समाप्तप्राय हो जाती हैं | 321
तनाव उत्पन्न करने वाले ये चार घटक जब अति अल्प हो जाते हैं, तब व्यक्ति का जीवन आत्मिक - संतोष एवं शांति से व्यतीत होता है। इस स्थिति में उसे न तो किसी से भय होता है और न ही किसी से घृणा । उसमें त्यागशीलता, परिणामों में भद्रता, व्यवहार में प्रामाणिकता, कार्य में ऋजुता, अपराधियों के प्रति क्षमाशीलता, साधु-गुरुजनों की पूजा - सेवा में तत्परता के गुण होते हैं, जो पद्मलेश्या के लक्षण हैं । 322 पद्मलेश्या वाले व्यक्ति के मन में प्राणी मात्र के प्रति भी वात्सल्यभाव व करुणा होती है। वह अल्पभाषी, उपशांत एवं जितेन्द्रिय होता है, जिसके फलस्वरूप व्यक्ति तनावमुक्त एवं मोक्ष - अवस्था प्राप्त करने की ओर अग्रसर होता है। पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था ही मोक्ष की प्राप्ति है, अतः उसके प्रयत्न उस दिशा में होते हैं ।
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6. शुक्ल - लेश्या
शुक्ल-ल - लेश्या होने पर व्यक्ति पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था में होता है। हम यह कह सकते हैं कि तनावमुक्त अवस्था तभी प्राप्त होती है, जब व्यक्ति शुक्ललेश्या में प्रवेश कर लेता है।
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यह मनोभूमि परमशुभ मनोवृत्ति है। इस लेश्या से युक्त व्यक्ति के जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता है कि वह अपने हित के लिए दूसरों को तनिक भी कष्ट नहीं देना चाहता। उसकी मानसिक स्थिति बहुत ही शांत एवं संतुलित रहती है। कैसी भी परिस्थिति आए, उसका सामना वह अपने आत्मविश्वास, सहनशीलता और बिना मन को विचलित किए समझदारी से करता है। वह न तो स्वयं ही तनावग्रस्त होता है और न ही दूसरों को तनावग्रस्त बनाता है । 'वह मन-वचन- कर्म से एकरूप होता है तथा उसका उन तीनों पर नियंत्रण होता है ।'
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321 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन का तुलनात्मक अध्ययन, भाग. 1, डॉ. सागरमल जैन, पृ.
516
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गोम्मटसार, जीवकाण्ड -516
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उत्तराध्ययनसूत्र - 34/29-30
324 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग. 1, डॉ.सागरमल जैन, पृ.516
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