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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
अतः, तनावमुक्ति के लिए इच्छा-निरोध आवश्यक है। भगवान् महावीर ने भी कहा है- "छंद निरोहेण उवेइ मोक्खं । " 296 अर्थात्, इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त होता है और मोक्ष तभी प्राप्त होता है, जब व्यक्ति की सारी इच्छाएं या आकांक्षाएं समाप्त हो जाती हैं। व्यक्ति जितेन्द्रिय होकर शांति का अनुभव करता है। वस्तुतः, मोक्ष की अवस्था ही पूर्णतः तनावमुक्त अवस्था है। . . लेश्याओं का स्वरूप -
उत्तराध्ययनसूत्र के चौंतीसवें अध्याय में लेश्याओं के स्वरूप की चर्चा उपलब्ध होती है। जैन-विचारकों के अनुसार लेश्या की परिभाषा इस प्रकार से है- जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है या बन्धन में आती है, वह लेश्या है।27 वस्तुतः, लेश्या मनोभावों की एक अवस्था है। जैनागमों में लेश्या दो प्रकार की मानी गई हैं - 1. द्रव्य-लेश्या और 2. भाव-लेश्या।
द्रव्य पक्षों में लेश्याओं के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श आदि की चर्चा की गई है, जबकि भाव-पक्ष में किसी विशेष लेश्या के मनोभावों का उल्लेख किया गया है और उसके आधार पर व्यक्ति की लेश्या बताई गई है। इन दोनों पक्षों की विस्तृत चर्चा हम इसी अध्याय में आगे करेंगे, अतः इसके विस्तार में न जाकर यहाँ सर्वप्रथम हम केवल उत्तराध्ययनसूत्र में लेश्याओं के जो लक्षण बताए गए हैं, उसके आधार पर तनावों की चर्चा करेंगे। व्यक्ति के मनोभाव मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं -शुभ व अशुभ। पुनः, अशुभ के तीन स्तर होते हैं- अशुभतम, अशुभतर, अशुभ। उसी तरह शुभ के तीन स्तर होते हैं - शुभ, शुभतर
और शुभतम । वस्तुतः लेश्याओं में जो शुभ और अशुभ मनोभाव होते हैं, वही तनाव के कारण बनते हैं। अशुभ मनोभावों में दूसरे के अहित का चिंतन होने के कारण वे तनाव के हेतु बनते हैं और शुभ मनोभावों में दूसरे के हित का चिंतन होने के कारण किसी स्थिति में वे भी तनाव के कारण बनते हैं। शुभ और अशुभ के जो तीन-तीन स्तर हैं, उन्हीं के आधार पर जैन-आचार्यों ने लेश्याओं के निम्न छह नाम दिए हैं - 1. कृष्ण, 2. नील, 3. कापोत, 4. तेजस, 5. पद्म और 6. शुक्ल इनमें से प्रथम तीन अशुभ व अन्तिम तीन शुभ मानी गई हैं।
296 उत्तराध्ययनसूत्र - 4/8 297 अभिधानराजेन्द्र, खण्ड-6, पृष्ठ 675
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