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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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इसी से जीव में उनको पाने की कामना और संकल्प का जन्म होता है।293 वस्तुतः, इन्द्रियों का विषयों से सम्पर्क होने पर व्यक्ति को कुछ विषय अनुकूल और कुछ विषय प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। इससे व्यक्ति में इससे व्यक्ति में अनुकूल विषयों की पुन:-पुनः प्राप्ति और प्रतिकूल विषयों को दूर रखने की इच्छा जाग्रत होती जाती है। जब तक व्यक्ति की यह इच्छा पूर्ण नहीं होती है, तब तक वह तनावग्रस्त रहता है। जैनाचार्यों ने भी मन और इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की पुनः प्राप्ति की प्रवृत्ति को ही इच्छा कहा है। भविष्य में इन्द्रियों के विषयों की प्राप्ति की अभिलाषा का अतिरेक ही इच्छा है। जब सुखद अनुभूति को पुनः-पुनः प्राप्त करने की यह लालसा या इच्छा तीव्र हो जाती है, तो वह गाढ़ राग का रूप ले लेती है। यह राग नियमतः तनाव का हेतु है।
प्रत्येक व्यक्ति सुख प्राप्त करना चाहता है और दुःखद अनुभूतियों से बचना चाहता है। जब उसकी यह चाह पूरी होती है, तब वह स्वयं में तनावमुक्ति एवं शांति का अनुभव करता है, किन्तु उसकी यह तनावमुक्ति अवस्था चिरकाल तक नहीं रहती है, क्योंकि व्यक्ति की एक इच्छा पूरी होते ही, कुछ ही समय में दूसरी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। दूसरी इच्छा पूर्ण हुई नहीं,कि तीसरी इच्छा अपनी जगह बना लेती है। यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहता है, क्योंकि इच्छाओं का कोई पार नहीं है। वे आकाश के समान अनन्त हैं। 25 जब कोई एक इच्छा पूरी नहीं होती, तो मन दुःखी होता है और उस इच्छा को पूर्ण करने के लिए कई प्रकार के संकल्प-विकल्प करने लगता है। इसी को तनावयुक्त अवस्था कहते हैं। एक इच्छा पूर्ण हो जाए, तो भी दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है, या फिर जिस कामना के पूरी होने से जो अनुभूति हुई है, उसे पुन:-पुनः प्राप्त करने की इच्छा होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि किसी वस्तु या व्यक्ति को प्राप्त करने की इच्छा पूर्ण होने पर व्यक्ति सुखद अनुभव करता है, किंतु कुछ ही क्षण बाद उसके नष्ट होने का या वियोग होने का भय उसे सताने लगता है और यह भय भी तनाव उत्पत्ति का ही एक रूप है।
293 कार्तिकेयानुप्रेक्षा – 184. 294 अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड-2, पृ. 575 299 इच्छा हु आगाससमा अणंतिया। - उत्तराध्ययनसूत्र -9/48
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