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________________ जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति दिया है। विश्व में आज जो युद्ध की विभित्सिका मंडरा रही है, वह वस्तुतः जीवन जीने के साधनों के कमी कारण नहीं है अपितु मनुष्य की संग्रहवृत्ति, अधिकारवृत्ति और पारस्परिक अविश्वास जन्य भय के कारण है । तनाव मुक्ति भारतीय धर्मो और विशेष रूप से जैन धर्म का संदेश यह रहा है कि व्यक्ति तनावों से मुक्त होकर समत्व या समभाव में जीने का प्रयत्न करे । गीता में इसे ही समत्वयोग की साधना कहा गया है। समत्वयोग अनासक्त, वीतराग या वीत- तृष्ण होने की कला सिखाता है। आज विश्व में धर्म के नाम पर बहुत कुछ आडम्बर और मिथ्य धारणाएँ बनी हुई है। कर्मकाण्डों और भौतिक उपलब्धि को ही धर्म मान लिया है। धर्म भौतिक उपलब्धियों का साधन नहीं है । धर्म आत्म-शोधन या चित्त वृत्ति शोधन की प्रक्रिया है । वह आत्मोपलब्धि है आध्यात्मिक है। वस्तुतः समत्व की साधना ही अर्थात् अनासक्त, वीराग और वीततृष्ण होना ही धर्म है। मेरी दृष्टि में वे सभी बातें जो मुझको मेरे परिवार को अथवा समाज और राष्ट्र को तनाव ग्रस्त बनाती है, वे सभी अधर्म हैं, पाप हैं । वस्तुतः जो व्यक्ति को परिवार को समाज को राष्ट्र को तनाव मुक्ति के प्रयासों का प्रश्न है, वहाँ तक सभी धर्म और संस्कृतियाँ एकमत है । विश्व में अभय और शांति की स्थापना के लिए हमें मानव को तनावमुक्त रहने की कला सिखाना होगी, क्योंकि तनाव - मुक्ति के प्रयत्न ही धर्म है, साधना है। आज मानव जाति को तनाव मुक्ति की दिशा में ले जाने के लिए निम्न सार्थक प्रयत्नों की आवश्यकता है । 13 सुश्री तृप्ति जैन ने मेरे निर्देशन में जैन धर्म में तनाव प्रबन्धन विषय को लेकर शोध कार्य किया है और वही कुछ संशोधनों के साथ पुस्तक के रूप में प्रकाशित होने जा रहा है। इस कृति के नाम में से . हमने प्रबन्धन शब्द को हटाकर "जैन धर्म दर्शन में तनाव और उनसे मुक्ति के उपाय" ऐसा बोधगम्य् नाम दिया है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम तनावों के स्वरूप को आधुनिक मनोविज्ञान और जैन धर्म दर्शन के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया है। इसके दूसरे अध्याय में तनावों के कारण का विशलेषण किया है और यह बताया गया है कि यद्यपि किसी सीमा तक आर्थिक - विपन्नता शारीरिक अस्वथता, परिवेश की विद्रूपता तनावों का कारण होती है । किन्तु मुख्य रूप से जो तनाव का मूलभूत कारण है, वह व्यक्ति में रही हुई संचय या परिग्रह की वृत्ति ही है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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