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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
आकाक्षाएँ, अपेक्षाएँ और इच्छाएँ बनाती हैं। यद्यपि इस बात को बडे जोर-शोर से प्रसारित किया जाता है कि अभाव या गरीबी तनाव का एक प्रमुख कारण है। किन्तु संसार में अनेक ऐसे मनुष्य भी है, जिनकी इच्छाएँ और आकाक्षाएँ इतनी तीव्र नहीं होती है, वे स्वभावः शांत और संतोषी होते है, और इस कारण से वे तनाव ग्रस्त नहीं बनते हैं। वस्तुतः तनाव का मूलभूत कारण वस्तु का अभाव नहीं किन्तु वस्तु. अर्थात् जागतिक विषयों अभाव या विपन्नता के कारण अधिक की प्राप्ति कि गहरी आकांक्षा है। कहा भी जाता है- संतोषी सदा सुखी। इस सम्बन्ध में एक अन्य दोहा भी प्रसिद्ध है
गोधन, गजधन, बाजीधन अरू रतनधन खान । जब आवे संतोष धन, सब धन धूरी समान ।।
वस्तुतः तनाओं से मुक्ति के लिए व्यक्ति में इच्छा, आंकाक्षा या . तृष्णा से मुक्ति है। तनाव का मूलकारण वस्तुओं का अभाव या स्वास्थ्य सम्बन्धी विकृतियाँ ही नहीं होती है। विश्व में ऐसे अनेक विपन्न व्यक्ति देखे जाते हैं, जो गरीबी और बिमारी के बावजूद भी प्रसन्न-चित्त रहते हैं। व्यक्ति की दुष्पूर इच्छाएँ और आंकाक्षाएँ ही उसमें तनावों को जन्म देती है। कहा भी गया है कि
चाह गई चिंता मिटी, और मनुवा भया बेपरवाह। जिसको कछु न चाहिए वह भाहंशाहों का भी भाहंशाह ।। तनाव के कारण
वस्तुतः व्यक्ति जब अपने तनावो के कारणों का विशलेषण करता है, तो उसे सत्यता का बोध हो जाता है। क्योंकि तनावों के पीछे व्यक्ति की गहरी आसक्ति या तृष्णा रही हुई होती है। आज विश्व में जो अशांति और दुःख हैं, वे सब किसी न किसी रूप में तृष्णा या आसक्ति जन्य है। संग्रह की आंकाक्षा, स्वामित्व की अपेक्षा और अच्छाओं की असीमितता ही आज मानव जाति के तनाव ग्रस्त होने में मूल कारण है। वर्तमान युग में हमें आवश्यकता और आंकाक्षाओं का अन्तर समझना होगा। आवश्यकता की पूर्ति सम्भव है, किन्तु आंकाक्षा या इच्छाओं की पूर्ति सम्भव नहीं है। मिथ्या, स्वामित्व की अवधारणा और दुष्पूर आंकाक्षा या तृष्णा ही तनावों का मोलिक कारण है। इसलिए भारतीय संस्कृति ने आसक्ति, ममत्ववृत्ति, तृष्णा या रागात्मकता से उपर उठने का संदेश
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