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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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नहीं हुआ, किन्तु जब बाह्मी व सुन्दरी ने आकर उद्बोधन दिया कि भाई मानरूपी हाथी से नीचे उतरो, तो बाहुबली ने मान-कषाय का त्याग कर केवलज्ञान प्राप्त किया।
प्रत्याख्यानी-मान - बांस के छिलके के समान जो सामान्य प्रयत्न से भी झुक जाए, उसे प्रत्याख्यानी- मान कहते हैं। प्रत्याख्यानी मान चेतना की वह स्थिति है, जिसमें अहंभाव का उदय तो होता है, किन्तु व्यक्ति की चेतना उससे प्रभावित नहीं होती। व्यक्ति उससे जुड़ता नहीं है और इस कारण से प्रत्याख्यानी-कषाय के उदय होने पर तनाव में किसी प्रकार की तीव्रता नहीं होती। संक्षेप में कहें, तो इस अवस्था में स्वाभिमान तो रहता है, पर अभिमान नहीं रहता, व्यक्ति में मूल्यात्मकचेतना प्रसुप्त नहीं होती।
संज्वलन-मान- संज्वलन-कषाय चेतना की वह स्थिति है, जिसमें अवचेतन स्तर पर कषाय की सत्ता तो होती हैं, किन्त उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती। जिस प्रकार गोबर के कण्डे की अग्नि राख से ढंकी रहती है, उसी प्रकार संज्वलन-मान में व्यक्ति अहंकार से मुक्त, विनयशीलता से युक्त तो होता है, किन्तु उसके अन्तस में अहंकार का भाव पूरी तरह से समाप्त नहीं होता है, मात्र तनाव का आवेग अव्यक्त रूप से चेतना में अपना अस्तित्व रखता है। इस संज्वलन-मान में व्यक्ति अपनी विनयशीलता को प्रकट तो करता है, किन्तु उस विनय के पीछे उसमें अपने को विनीत दिखाने और कहलाने की भावना छिपी होती है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति को मान की अपेक्षा तो रहती है, किन्तु उसके लिए वह अभिव्यक्ति नहीं करता। इस अवस्था में मान छद्मरूप में विनय का लबादा ओढ़े रहता है। इस प्रकार, इस अवस्था में चेतना में तनाव की उपस्थिति तो नहीं रहती, किन्तु प्रसंग आने पर या निमित्त पाकर तनावग्रस्त होने की आंशिक सम्भावना बनी रहती है।
__ माया – कषायरूप मनोवृत्तियाँ मानसिक विकारों के कारण उत्पन्न होती हैं और तनाव का कारण बनती हैं। इन कषायों को व्यक्ति अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए व्यवहार में लाता है। अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए व्यक्ति सबसे अधिक उपयोग माया-कषाय का करता है। 'माया' शब्द मा + या से बना है। 'या' का अर्थ 'जो' तथा 'मा' का अर्थ 'मत या नहीं है। इस प्रकार, जो नहीं है, उसको प्रस्तुत करना माया है। दूसरे शब्दों में कहें, तो कपटाचार, धोखा, विश्वासघात आदि माया है और माया करनेवाले को मायावी कहते हैं। अणगार-धर्मामृत में मायावी
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