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________________ 142 जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति दूषित हो जाती हैं, अर्थात् उसका मन मलिन हो जाता है। वह फरेब, बेईमानी, दूसरों का अपमान करना, उन्हें दुःख देना आदि दुराचरण अपना लेता है। ऐसा व्यक्ति न तो स्वयं तनावमुक्त हो सकता है, न ही दूसरों को तनावमुक्त रहने देता है। मान-कषाय से युक्त व्यक्ति दूसरों को अपने अधीन रखना चाहता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को स्वाधीन मानकर दूसरों पर अत्याचार करता है। मान-कषाय व्यक्ति के विनय, सद्बुद्धि, सरलता आदि गुणों को घात करने वाला है। ज्ञानार्णव में शुभचन्द्राचार्य का कथन है- "अभिमानी विनय का उल्लंघन करता है और स्वेच्छाचार में प्रवर्तन करता है। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने मानजन्य हानियाँ बताई हैं- मान विनय, श्रुत और सदाचार का हनन करने वाला है। मान-कषाय धर्म, अर्थ और काम का घातक है; विवेकरूपी चक्षु को नष्ट करने वाला है।" जहाँ व्यक्ति में विवेकशून्यता आ जाती है, वहां तनाव में वृद्धि हो जाती है। व्यक्ति जितना अधिक अहंकारग्रस्त होगा, वह उतना ही अधिक तनावग्रस्त होता चला जाएगा। उसकी मानग्रस्तता की तीव्रता व मंदता की अवस्था के आधार पर प्रथम कर्मग्रन्थ में मान-कषाय के निम्न चार स्तर बताए हैं - अनन्तानुबन्धी-मान - विनयवान व्यक्ति ही तनावमुक्त होता है। अनन्तानुबन्धी मान वाले व्यक्ति में विनयगुण नाम मात्र को भी नहीं रहता है। ऐसा व्यक्ति पत्थर के खम्भे के समान होता है, जो झुकता नहीं, चाहे टूटना ही क्यों न पड़े। ऐसा व्यक्ति, जिसमें विवेक, करुणा, स्नेह आदि गण नहीं होते हैं, वह अनन्तानुबन्धी मान-कषाय से युक्त होता है। विवेकशून्य होने के कारण वह आजीवन तनावों से ग्रस्त बना रहता है और साथ-ही-साथ मान के वशीभूत होकर ऐसे कर्म करता है, जिसके परिणामस्वरूप भविष्य में भी तनावग्रस्त ही रहता है। अप्रत्याख्यानी-मान - जो मान आजीवन् तो नहीं, किन्तु लम्बे समय तक व्यक्ति को तनावयुक्त रखता है, उसे अप्रत्याख्यानी-मान कहते हैं। अप्रत्याख्यानी-मान जीवित व्यक्ति की हड्डी के समान होता है, जो विशेष प्रयत्न करने पर ही दीर्घ समय के बाद झुकती है, टूटती नहीं है। बाहुबली को दीर्घ तपस्या करने के पश्चात् भी केवलज्ञान प्राप्त 276 ज्ञानार्णव, सर्ग-9, गाथा-53 277 योगशास्त्र, प्र. 4, गाथा-12 278 सेलथंभसमाणं माणं अणुपविढे जीवे काल करेइ षोरइएसु उववज्जति। - स्थानांगसूत्र, 4/2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004099
Book TitleJain Darshan me Tanav aur Tanavmukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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