________________
144
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
का निम्न स्वरूप बताया गया है – 'जो मन में होता है, वह कहता नहीं, जो कहता है, वह करता नहीं, वह मायावी होता है। 279 आचारांग में कहा गया है- मायावी और प्रमादी बार-बार जन्म लेता है, उसका संसार-परिभ्रमण कभी समाप्त नहीं होता। कितनी भी साधना हो, पर यदि माया-रूपी मनोभाव कृश नहीं हुए, तो सम्पूर्ण. साधना निरर्थक है। माया गति को ही नहीं माया सौभाग्य को भी नष्ट कर दुर्भाग्य को . जन्म देती है।281
जैनदर्शन के अनुसार माया कपटवृत्ति है। चार कषायों में यह भी एक प्रमुख कषाय है। इसे दूसरों को धोखा देने की वृत्ति कहा जाता है। एक दृष्टि से, माया द्वेष का ही एक रूप है। दूसरों को मिथ्या जानकारी देना, अपने दुर्गुणों को छिपाना और दूसरों के दुर्गुणों को व्यक्त करना भी कपटवृत्ति का ही एक रूप है। इससे जीवन में दोहरापन आता है। व्यक्ति करता कुछ है और दिखाता कुछ है, बस इसी में तनाव का जन्म होता है। व्यक्ति को सदैव यह भय बना रहता है कि उसकी यथार्थता कहीं उजागर न हो जाए, अतः वह सदैव ही उस दोहरेपन को या कपटवृत्ति को ओढ़े रहता है और इस कारण तनावग्रस्त बना रहता है। जब व्यक्ति कपटवृत्ति या मायारूपी कषाय से युक्त होगा, तब वह अनिवार्य रूप से तनावग्रस्त होगा, क्योंकि जहाँ भी यथार्थता को छुपाने की वृत्ति होती है, वहाँ उसके उजागर होने का भय बना रहता है और जहां भय है, वहां अनिवार्य रूप से तनाव रहता ही है।
इस प्रकार, माया या कपटवृत्ति तनाव की ही हेतु है और तनाव से मुक्त होने के लिए कपटवृत्ति का त्याग आवश्यक है।
माया केवल स्वयं को ही तनावग्रस्त नहीं करती, वरन् उसे भी तनावग्रस्त कर देती है, जिसके साथ कपट किया है। दशवैकालिकसूत्र में इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहा है- माया की मित्रता से अच्छे सम्बन्धों का नाश होता है। जब मित्र को, परिजनों को या सम्बन्धियों को यह पता चलता है कि उसी के किसी अपने ने उसे धोखा दिया है, तो उनको बहुत चोट या आघात पहुंचता है।
279 थो वाचा स्वमपि स्वान्तं .............। -धर्मामृत, अ.6, गा.19 280 माई पमाई पुण एइ गम्भं .......... -आचारांगसूत्र :-1/3/1
दुर्भाग्यजननी माया, माया दुर्गतिकारणम्। - विवेकविलास दशवैकालिकसूत्र - 8/38
282
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org