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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
मान-कषाय के निम्न पर्यायवाची शब्द हैं - 1.दर्प – उत्तेजनापूर्ण अहंभाव, अर्थात् गर्व में चूर होकर क्रोधपूर्वक दुष्ट कार्य करना दर्प है। 2.स्तम्भ - खम्बे की तरह अकड़ कर रहना, अर्थात् स्वयं की गलती होने पर भी झुकना नहीं, स्तम्भ कहलाता है। 3.गर्व - स्वयं के ज्ञान, कला या शक्ति का घमण्ड होना गर्व कहलाता
4.अति आक्रोश – दूसरे व्यक्तियों से तुलना कर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानना अति-आक्रोश है। 5.परपरिवाद - अठारह पापस्थानों में से सोलहवां पापस्थान परपरिवाद है। इस पाप में व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ बताने के लिए दूसरों की निन्दा करता है, अर्थात् दूसरे के दोषों को बतलाता है। 6.उत्कर्ष - अपनी कीर्ति, ऐश्वर्य, ऋद्धि का स्वयं ही गुणगान करना या उसका प्रदर्शन करना उत्कर्ष कहलाता है। 7.अपकर्ष – दूसरों को नीचा दिखाने के लिए उनकी आलोचना या निन्दा करना अपकर्ष-मान है। 8.उन्नतमान - स्वयं से अधिक गणवान व्यक्ति के आ जाने पर भी उसके समक्ष नहीं झुकना, वन्दनीय को वंदन नहीं करना, उन्नतमान है। 9.उन्नत - स्वयं को ऊँचा एवं दूसरों को तुच्छ समझना। . 10. पुर्नाम – गुणी व्यक्ति जिस आदर के हकदार हैं, उन्हें वह आदर नहीं देना, पुर्नाम कहलाता है।
अभिमानी व्यक्ति सिर्फ अपने बारे में ही सोचता है। वह इतना स्वार्थी होता है कि स्वयं के मान के पोषण में दूसरों का अपमान करने से भी नहीं चूकता है। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि अभिमानी अहं में चूर होकर दूसरों को परछाई के समान तुच्छ समझता है।73 मान-कषाय और तनाव का सह-सम्बन्ध -
मान नशे के समान है। जिस प्रकार नशे में धुत व्यक्ति स्वयं के शारीरिक अंगों को नष्ट करता हुआ लड़खड़ाकर चलते हुए धरती पर
273 अण्णं जणं पस्सति, बिंबभूयं, सूत्रकृतांग, अध्याय-13, गाथा-8
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