________________
138
जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
पर मात्र सत्तारूप होता है। अनन्तानुबन्धी-क्रोध तीव्रतम प्रतिक्रियायुक्त एवं जीवनपर्यन्त बना रहता है और अप्रत्याख्यानी-क्रोध केवल चैतसिक-स्तर पर होता है। उसमें बाह्याभिव्यक्ति या प्रतिक्रियाएँ रुकती हैं, किन्तु चैतसिक-प्रतिक्रियाएँ या संकल्प-विकल्प चलते रहते हैं. प्रत्याख्यानी-कषाय में बाह्य एवं चैतसिक-प्रतिक्रिया तो रुकती है, किन्तु चित्त उससे कुछ समय के लिए प्रभावित अवश्य होता है। जितनी अधिक क्रोध की प्रतिक्रियाएं होती हैं, उतना ही अधिक तनाव होता है और जितनी कम क्रोध की प्रतिक्रियाएं होती हैं उतना ही कम तनाव होता है। 2. मान-कषाय -
___'मान एक ऐसा मनोविकार है, जो स्वयं को उच्च एवं दूसरों को निम्न समझने से उत्पन्न होता है। 269 सामान्यतः मान दूसरों से हमें मिलने वाले आदर, इज्जत या सम्मान-सत्कार की आकांक्षा को कहते हैं। वस्तुतः, यहां मान से तात्पर्य उस मनोविकार से है, जिसमें स्वयं को सर्वश्रेष्ठ एवं दूसरों को निम्न कोटि का समझा जाता है। अपनी आन-बान-शान पर या अपनी उपलब्धियों पर गर्व या घमण्ड करना ही मान है।
मान के कई समानार्थी शब्द होते हैं। जैन आगमों में मान को निम्न बारह रूपों में स्पष्ट किया गया है 210
मान -
___अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति का होना मान है। जब व्यक्ति के समक्ष उससे अधिक कुशल व्यक्ति आ जाता है, तब उसके मन में ईर्ष्या का जो भाव उत्पन्न होता है, उसे मान-कषाय या तनाव की स्थिति कहते हैं। व्यक्ति अपने को सर्वश्रेष्ठ स्थान पर रखने के लिए दूसरों की निंदा करता है, उसके दोषों को उजागर करता है, यह भी मान-कषाय ही है।
मद -
शक्ति का अंहकार मद कहलाता है। अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए व्यक्ति बिना कोई विचार किए दूसरों को चुनौतियाँ देता है। समवायांगसूत्र में मद के आठ भेद बताए हैं।
269 कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन, साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 23 270 भगवतीसूत्र - 12/43
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org