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जैनधर्म दर्शन में तनाव और तनावमुक्ति
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3. प्रत्याख्यानावरण-क्रोध -
यह क्रोध अल्पकालिक और नियन्त्रण योग्य होता है। 'बालू रेत में बनी रेखा के समान प्रत्याख्यानावरण-क्रोध है। 268 जैसे बालू में खिंची हुई लकीर हवा के झोंकों से धीरे-धीरे मिट जाती है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानी-क्रोध भी धीरे-धीरे शांत हो जाता है। अप्रत्याख्यानी-कषायों में भी मानसिक तनाव होता है और वह दीर्घकाल तक बना रहता है जबकि प्रत्याख्यानावरण में उसकी अवधि अल्प होती है। व्यक्ति का तद्जन्य मानसिक तनाव अल्प समय में ही शांत हो जाता है। 4. संज्वलन-क्रोध -
यह क्रोध मन के अवचेतन. स्तर पर क्षण भर के लिए आता है और शांत हो जाता है। जिस प्रकार पानी में खिंची लकीर उसी क्षण मिट जाती है, उसी प्रकार जब व्यक्ति के मन में किसी के प्रति क्रोध का भाव आ जाए, किन्तु उसी क्षण उसकी निरर्थकता जानकर वह उससे विरत हो जाए, यह संज्वलन-क्रोध है। यह चैतसिक-स्तर पर अवचेतन में आकर समाप्त हो जाता है। इसमें तनाव भी क्षणिक काल के लिए ही होता है।
__व्यक्ति को क्रोध आंना स्वाभाविक है, किन्तु उस पर प्रतिक्रिया करना या नहीं करना यह व्यक्ति के मनोबल पर आधारित है। मानसिक चेतना जितनी सजग व शक्तिशाली होगी, व्यक्ति में क्रोध की प्रवृत्ति के नियंत्रण की शक्ति भी उतनी ही अधिक होगी और वह तनावग्रस्त भी कम होगा। .
.. अनन्तानबंधी-क्रोध . में व्यक्ति का मनोबल हीन होता है। अप्रत्याख्यानी क्रोधी के मनोबल में केवल इतनी ही शक्ति होती है कि वह क्रोध की बाह्य-प्रतिक्रियाएं नहीं करता है, परन्तु उसका मन तनाव से ग्रस्त रहता है।
प्रत्याख्यानावरण-क्रोध एवं संज्वलन-क्रोध में व्यक्ति का मनोबल अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली होता है, इसलिए वह क्रोध की बाह्यअभिव्यक्ति पर पूर्ण नियन्त्रण कर पाता है। प्रत्याख्यानावरण-क्रोध कुछ समय के लिए चेतना का स्पर्शमात्र करता है, उसकी बाह्य-अभिव्यक्ति नहीं होती है, जबकि संज्वलन-कषाय में क्रोध अचेतन या अवचेतन स्तर
268 प्रथम कर्मग्रन्थ /या / कषाय, पृ. 44
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